काला धन आज समाज की प्रमुख आर्थिक समस्या के रूप में उभरकर सामने आया है। सामाजिक सन्दर्भ में इस समस्या को समाज पर पूर्णतः नकारात्मक प्रभाव डालने वाली समस्या माना जाता है, जैसे-सामाजिक असमानता, सामाजिक वंचनाएं आदि। आर्थिक सन्दर्भ में काले धन की समस्या को समान्तर अर्थव्यवस्था, भूमिगत अर्थव्यवस्था या अनाधिकारिक अर्थव्यवस्था के रूप में देखा जाता है जो सरकार की अपरिष्कृत आर्थिक नीतियों का परिणाम है और जिसका देश की अर्थव्यवस्था तथा राष्ट्र की सामाजिक विकास-योजनाओं पर घातक प्रभाव पड़ता है। समाज की अन्य समस्याओं से तो पूरा समाज यानी समस्या पैदा करने वाले तथा अन्य सभी प्रभावित होते हैं किन्तु काले धन की समस्या से इस समस्या के उत्पादक वर्ग पर इसका कुप्रभाव नहीं पड़ता। अतः समाज में इस समस्या के उत्पादक वर्ग की संख्या उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है।
काला धन कर अपवंचित आय है। इसे अर्जित करने वाले व्यक्ति कर-उद्देश्यों के लिए अपनी समस्त आय को प्रकट नहीं करते। उदाहरण के लिए सरकारी चिकित्सक का अनाभ्यास भत्ता लेते हुए भी निजी अभ्यास करना, अध्यापकों का ट्यूशन, परीक्षा तथा पुस्तकों की रायल्टी से धन अर्जित करते हुए भी उस आय को आयकर विवरण में न दर्शाना, अधिवक्ताओं का अपने आय-व्यय खाते में दर्शायी गयी राशि से कहीं अधिक वसूल करना आदि। इसी प्रकार रिश्वत, तस्करी, कालाबाजारी, नियन्त्रित मूल्यों से अधिक मूल्य पर वस्तुओं का विक्रय, मकान-दुकान के लिए ‘पगड़ी’ लेना, मकान को ऊॅंची बढ़ी हुई कीमतों पर बेचना जबकि लेखा-पुस्तकों में बहुत कम मूल्य दिखाना आदि कालेधन के गै़र-कानूनी स्रोत हैं।
नेशनल इनस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एण्ड पालिसी (NIPFP) के अनुसार, ‘‘कालाधन वह आय होती है जिस पर कर की देनदारी बनती है लेकिन उसकी जानकारी टैक्स विभाग को नहीं दी जाती है।’’-इकोनॉमिक टाइम्स (हिन्दी), 28 अगस्त, 2012.
हरिकृष्ण रावत के अनुसार, ‘‘वैध अथवा अवैध साधनों से कमाई ऐसी आय या सम्पत्ति जिसे कर बचाने के लिए छुपाया जाता है, काला धन है।’’
किसी भी समाज में कालेधन के प्रचलन का आंकलन करना सरल नहीं है। अमरीका, इग्लैण्ड, नार्वे, स्वीडेन और इटली में अर्थशास्त्रियों ने अनेको उपाय किये लेकिन काले धन में लगे हुए धन का आंकलन नहीं कर सके। काले धन का प्रचलन न केवल विकासशील देशों में है, बल्कि यह विकसित देशों-अमरीका, ब्रिटेन, रूस, जापान, कनाडा, फ्रांस तथा जर्मनी आदि में भी फल-फूल रहा है।
लगभग 25 वर्ष पूर्व अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोश (IMF) द्वारा कराये गये अध्ययन से पता चलता है कि भूमिगत अर्थव्यवस्था के सम्बन्ध में भारत का स्थान प्रथम है, इसके बाद अमरीका दूसरे तथा कनाडा तीसरे स्थान पर आता है। (Vito Tangani : The Underground Economy, December 1983 : 31)
स्विट्जरलैण्ड सरकार के संघीय वित्तीय विभाग (FDF) के रिपोर्ट में विश्व बैंक के अध्ययन का हवाला देते हुए दावा किया गया है कि कम्पनी की आड़ में भ्रष्ट सम्पत्ति छिपाने का सर्वाधिक मामला अमरीका में पाया गया है, जबकि स्विट्जरलैण्ड इस मामले में भारत के साथ 13वें पायदान पर है। इस मामले में अमरीका के बाद ब्रिटिश वर्जिन आईलैण्ड, पनामा, लीसटेंसटाइन तथा बहामास शीर्ष 5 देशों में शामिल हैं।
प्रो0 कालदार के अनुसार भारत में सन् 1953-54 में 600 करोड़ रुपया काला धन था। वाचू समिति का अनुमान था कि सन् 1965-66 में कालाधन 1,000 करोड़ रुपये था। रांगनेकर ने कालेधन के आंकडे़ 1961-62 में 1,150 करोड़ रुपये, 1964-65 में 2,350 करोड़ रुपये, 1968-69 में 2,833 करोड़ रुपये और 1969-70 में 3,080 करोड़ रुपये बताये हैं। चोपड़ा (इकोनॉमिक एण्ड पॉलिटिकल वीकली,Vol.xvii, न.17 और 18, अप्रैल 24 और मई 1, 1982) ने अनुमान लगाया कि 1960-61 में 916 करोड़ रुपये कालाधन था जो 1976-77 में बढ़कर 8,098 करोड़ रुपये हो गया। पी0 गुप्ता और एस0 गुप्ता के अनुसार हमारे देश में काले धन की राशि 1967-68 में 3,084 करोड़ रुपये और 1978-79 में 40,867 करोड़ रुपये थी। उसके अनुमान से 1967-68 में सकल घरेलू उत्पाद का 9.5 प्रतिशत कालाधन था जो 1978-79 में बढ़कर 14.9 प्रतिशत हो गया। 1981 में एक स्रोत के अनुसार कालाधन अनुमानतः 7,500 करोड़ रुपये था और दूसरे स्रोत के अनुसार अनुमानतः 25,000 करोड़ रुपये था।
राष्ट्रीय जन वित्त प्रबन्ध और नीति संस्था के अनुमान के अनुसार कालेधन की राशि 1985 में 1,00,000 करोड़ रुपये के आस-पास या राष्ट्रीय आय का 20 प्रतिशत थी। योजना आयोग के अध्ययन के अनुसार लगभग कालाधन 70,000 करोड़ रुपये की श्रृंखला में ही था। द हिन्दुस्तान टाइम्स (2 अगस्त, 1991 पृष्ठ-11) के अनुसार प्रतिवर्ष 50,000 करोड़ रुपये काले धन के रूप में और पैदा हो जाते हैं। पूंजी की इस अप्रत्याशित वृद्धि का परिणाम यह हुआ कि विदेशों में इसका बहाव होने लगा जो सरकारी अधिकारियों के अनुसार 500 लाख डालर था। 1996 में हमारे देश में अनुमानित कालाधन 4,00,000 करोड़ रुपये से भी अधिक था।
भारत में कालेधन को मापने का कोई विश्वसनीय और पक्का पैमाना नहीं है। ज्यादातर अनुमान पुराने हैं और उनमें कई तरह नुक्स हैं। NIPFP की एक सूची के अनुसार 1983-84 में 32,000 से 37,000 करोड़ रुपया कालाधन था। (यह G.D.P. के 19-21 प्रतिशत के बीच है।) सन् 2010 में अमेरिका के ग्लोबल फाइनेन्सल इंटिग्रिटी ने अनुमान लगाया था कि 1948-2008 के बीच भारत से 462 अरब डालर की रकम निकली है। भारत ने तीन संस्थानों-राष्ट्रीय लोक-वित्त एवं नीति संस्थान, राष्ट्रीय वित्तीय प्रबन्ध संस्थान और राष्ट्रीय अनुप्रयुक्त आर्थिक अनुसन्धान परिषद से कालेधन का अनुमान लगाने के लिए कहा है।
विद्वानों ने भी संकेत किया है कि हमारे समाज में विद्यमान कालेधन का लगभग 26 प्रतिशत कर अपवंचित आय से है। अमरीका में कालाधन सकल राष्ट्रीय उत्पाद का लगभग 8 प्रतिशत होने का अनुमान है। भारत में कालाधन ग़ैर-कानूनी साधनों द्वारा अधिक एकत्र किया जाता है, जबकि अमरीका में यह कानूनी स्रोतों के माध्यम से अधिक (लगभग 75 प्रतिशत) होता है।
किसी भी देश में कालाधन उत्पन्न होने के अनेकों कारण हो सकते हैं, जैसे-अयथार्थवादी कर-कानून और कर-धोखाधड़ी, उत्पाद शुल्क की विविध दरें, सरकार की मूल्य-नियन्त्रण-नीति, कोटा-व्यवस्था, अभाव तथा त्रुटिपूर्ण सार्वजनिक वितरण-व्यवस्था, मुद्रास्फीति में वृद्धि, लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव तथा राजनैतिक-कोश बनाना, अचल भूसम्पत्ति का लेन-देन, निजीकरण तथा राजनैतिक आधार पर शासकों की कृषि-आय को आयकर के घेरे में लाने की अनिच्छा आदि।
कालाधन देश की अर्थव्यवस्था को अपूरणीय हानि पहुंचाता है और इसका प्रभाव आम आदमी पर अधिक पड़ता है। देश का आर्थिक सन्तुलन खतरे में पड़ जाता है, सामान्य व्यापार के क्रियाकलाप प्रभावित होते हैं तथा वित्तीय एवं वाणिज्य संस्थानों के संसाधन विकृत और इधर-उधर हो जाते हैं। कालेधन से मुद्रास्फीति दबाव में वृद्धि, विकास कार्य में बाधा, संसाधनों में अव्यवस्था, कर आधार का सीमितिकरण और समानान्तर अर्थव्यवस्था का उदय आदि आर्थिक प्रभाव होते हैं।
उपर्युक्त आर्थिक प्रभावों के अतिरिक्त कालेधन के अनेक सामाजिक दुष्परिणाम भी होते हैं। कालाधन सामाजिक असमानता को बढ़ाता है, भ्रष्टाचार को जन्म देता है, ईमानदारों में कुण्ठा पैदा करता है, तस्करी, रिश्वत जैसे अपराधों को जन्म देता है तथा समाज के ग़रीब और कमजोर वर्ग के उत्थान के कार्यक्रमों पर कुप्रभाव डालता है। यह यथार्थ दरों जैसे-विकास दर, मुद्रा स्फीति दर, बेरोज़गारी दर, ग़रीबी आदि के सही आंकलन को विकृत करता है तथा इसको रोकने की सरकारी नीतियों को प्रभावित करता है।
भारत सरकार ने गत वर्षों में कालेधन को बाहर लाने के उद्देश्य से अनेको उपाय किये हैं। इनमें विशेष धारक बाण्ड को चलाकर, उच्च मुद्रांक वाले मुद्रा नोटों को कम करके, छापे मारकर और स्वैच्छिक घोषणा की योजनाएं आदि हैं। कालेधन को सामने लाने के लिए सरकार ने मौजूदा संस्थानों को सशक्त किया है और नये संस्थान एवं नई व्यवस्था बना रही है। एन्टी मनी-लान्डरिंग (मनी-लान्डरिंग से तात्पर्य कालेधन को वैध बनाना है।) कानून को मजबूत बनाया गया है और अधिकांश संस्थानों को उसके दायरे में लाया गया है। कालेधन के प्रसार को रोकने के लिए भारत ग्लोबल मुहिम में शामिल हुआ है, सूचनाएं बांटने के लिए कई देशों के साथ समझौता किया है। देश में आयकर-दर में लगातार कटौती से कर नियमों का पालन बढ़ा है।
कुछ विद्वानों का मत है कि इन सभी उपायों ने वर्फ़ की चट्टान के ऊपर से स्पर्श मात्र किया है। 50 वर्षों की अवधि में इन सभी उपायों से मात्र 5,000 करोड़ रुपया ही मिला है। इन योजनाओं का मुख्य दोष यह है कि वे पहले से ही बनी हुई कालेधन की स्थिति को केवल स्पर्श ही कर पाती हैं, वे काले धन की उत्पत्ति की जड़ में नहीं जातीं और यही कारण है कि इतनी समस्याओं के बावजूद भी लोग कालाधन रखने के जोखिम उठाने को तैयार रहते हैं।
सन्दर्भः
1. हरिकृष्ण रावत, समाजशास्त्र विश्वकोश, रावत पब्लिकेशन्स जयपुर एवं नई दिल्ली, 2002.
2. राम आहूजा, सामाजिक समस्यायें, रावत पब्लिकेशन्स जयपुर एवं नई दिल्ली, 2008.
3. ओ0 पी0 चोपड़ा, ‘‘अनएकाउन्टेड इनकम: सम स्टीमेट्स’’, इकोनॉमिक एण्ड पोलिटिकल वीकली, Vol.xvii,1982.
4. पी0 गुप्ता और एस0 गुप्ता, ‘‘इस्टीमेट्स ऑफ दि अनरिपोर्टेड इकोनॉमी इन इण्डिया’’, इकोनॉमिक एण्ड पोलिटिकल वीकली, बाम्बे,Vol.xvii,1982.
5. वी0 एस0 महाजन, रेसेन्ट डेबलपमेन्ट्स इन इण्डियन इकोनॉमी, डीप एण्ड डीप पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली, 1984.
6. डी0 आर0 पेन्डसे, ‘‘ब्लैक मनी: इट्स नेचर एण्ड काजेज’’, दि इकोनॉमिक टाइम्स, 19 मार्च, 1982.
7. के0 वी0 वर्घेष, इकोनॉमिक प्राबलम्स ऑफ मॉडर्न इण्डिया, आशीष पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, 1985.
8. दि हिन्दुस्तान टाइम्स, 2 अगस्त, 1991, पृष्ठ-11.
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