Monday, January 24, 2011

भारतीय गांवों में नेतृत्व का उभरता प्रतिमान

         व्यक्तित्व की अतिरिक्त प्रतिभा तथा सामाजिक परिस्थितियां मनुष्य में नेतृत्व जागृत कर देती हैं। नेतृत्व एक सार्वभौमिक एवं विश्वव्यापी घटना है। जहां भी जीवन है वहां समाज है और जहां समाज है वहां नेतृत्व। नेतृत्व की अवधारणा मानव-समाज में ही नहीं अपितु पशु-समाज में भी स्पष्टतः द्रष्टव्य है फिर भी व्यावहारिक रूप में ग्रामीण नेतृत्व ग्रामीण पृष्ठभूमि में बहुत कुछ आधुनिक है। परम्परागत रूप में गांव में सरपंच आदि नेतृत्व के स्पष्ट प्रतीक थे पर आधुनिक समय में ग्रामीण नेतृत्व एक नवीन आवरण में परिलक्षित हो रहा है।
        भारत में स्वतन्त्रता के बाद ग्रामीण नेतृत्व के परम्परागत स्वरूप में महत्वपूर्ण परिवर्त्तन हुए हैं। आज़ादी के बाद एक धर्मनिरपेक्ष, समतावादी और लोकतान्त्रिक समाज की स्थापना के लिए ग्रामीण विकास को सर्वप्रमुख आवश्यकता के रूप में स्वीकार किया गया। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ग्रामों में न केवल नवीन विकास-योजनाएं आरम्भ की गयीं बल्कि सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक जीवन में ग्रामीणों के सहभाग को भी अनिवार्य समझा जाने लगा। इस सम्पूर्ण प्रक्रिया के प्रभाव से ग्रामीण नेतृत्व के अन्तर्गत अनेक ऐसे प्रतिमान विकसित हुए जिनका परम्परागत ग्रामीण नेतृत्व में पूर्ण अभाव था।
         आधुनिक समय के गावों के सम्पूर्ण ढांचे को परिवर्तित करने का कुछ श्रेय सरकारी प्रयत्नों तथा शेष सामाजिक शक्तियों को है जिसके अन्तर्गत शिक्षा का विस्तार, यातायात और संचार के साधनों की उन्नति, नगरों में मशीनों का अधिकाधिक प्रयोग, गांवों का नगरों से सम्पर्क तथा ग्रामीण समुदाय में राजनैतिक दलों की अधिक क्रियाशीलता सम्मिलित है। इन सभी कारणों से ग्रामीण नेतृत्व का परम्परागत स्वरूप दिन-प्रतिदिन बदलता जा रहा है।

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