Thursday, March 21, 2013

मनरेगा और ग्रामीण विकास

भारत गॉंवों का देश है। इसकी लगभग दो तिहाई आवादी गॉंवों में निवास करती है। अतः ग्रामीण क्षेत्रों का जीवन स्तर ऊॅंचा उठाये बिना राष्ट्र का विकास होना असम्भव है। आज भारत विश्व में मजबूत आर्थिक शक्ति के रूप में उभर रहा है। विश्व बैंक की ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व की चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था हो गई है। भारत में औद्योगिक उत्पादन दर तथा आर्थिक विकास दर औसतन बढ़ी है। वर्ष 2010-11 में तो यह दर 8.2 फ़ीसदी हो गयी थी1, वर्ष 2012-13 में आर्थिक विकास दर 5.7 से 5.9 प्रतिशत के बीच अनुमानित की गयी है।2 विदेशी मुद्रा भण्डार भी 30 मार्च, 2012 में 294.397 अरब डालर3 हो गया है फिर भी ग्रामीण क्षेत्रों की बदहाली देश के आर्थिक विकास की राह में कांटा बनी हुई है।
यह सही है कि स्वतन्त्र भारत की केन्द्रीय सरकार एवं विभिन्न राज्यों की राज्य सरकारों ने आरम्भ से ही ग्रामीण विकास की दिषा में अति सराहनीय क़दम उठाए हैं तथा अनेक ग्रामीण विकास योजनाओं व ग़रीबी उन्मूलन कार्यक्रमों का सृजन कर क्रियान्वित किया है। इन ग्रामीण विकास एवं ग़रीबी उन्मूलन कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में लगभग सभी राज्यों में पंचायती राज संस्थाओं की विषेष भूमिका रही है। भारत की चतुर्थ पंचवर्षीय योजना के पश्चात की सभी पंचवर्षीय योजनाओं में ग़रीबी उन्मूलन कार्यक्रमों को विशेष महत्व दिया गया तथा इन सभी योजनाओं का प्रमुख उद्देश्य विश्व से ग़रीबी निवारण करने का रहा है। इतना ही नहीं, बल्कि पिछले 65 वर्षों में विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में ग्रामीण विकास एवं ग़रीबी उन्मूलन कार्यक्रमों पर करोड़ों रूपये व्यय किये गये हैं, लेकिन इतनी अधिक राषि ख़र्च करने के बावज़ूद भी तंत्र की अयोग्यता, लापरवाही और भ्रष्टाचार के कारण ग्रामीण विकास एवं ग़रीबी निवारण की दिशा में अपेक्षित परिणाम नहीं मिल पा रहे हैं।
देश में पिछले कुछ दशकों में किए गए प्रयासों के बावजू़द भारत में ग्रामीण ग़रीबी अभी भी चिंता का विषय बनी हुई है। यद्यपि बाद के वर्षों में ग़रीबी उन्मूलन कार्यक्रमों को लगातार मजबूत बनाया गया है और यदि औसत के आधार पर देखा जाये तो ग़रीबी का स्तर जो सन् 1973-74 में भारत की जनसंख्या का 56.44 प्रतिशत् था, वह 1993-94 में घटकर 37.27 प्रतिशत हो गया है। इसके बाद भी ग्रामीण ग़रीबों की संख्या लगभग स्थिर बनी हुई है। इसकी अनुमानित संख्या लगभग 35.468 करोड़4 है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़ ग़रीबी की दर 1999-2000 में  26.1 प्रतिशत, वर्ष 2004-05 में 37.2 प्रतिशत तथा 2009-10 में 29.8 प्रतिशत हो गई है।5 विश्व के विकास पर ग़रीबी के इस बड़े प्रतिशत् के प्रभाव को आसानी से समझा जा सकता हैं।
विभिन्न वर्षों में किये गये सर्वेक्षण के अनुसार उ0 प्र0 तथा सम्पूर्ण देश में रहने वाले ग़रीबों की संख्यात्मक स्थितिः

वर्ष         उ0 प्र0  भारत
                 संख्या (लाख में)         प्रतिशत                     संख्या (लाख में)               प्रतिशत
1973 449.99 56.53 2612.90 56.44
1977-78 407.41 47.60 2642.47 53.07
1983 448.03                       46.45 2519.57 45.65
1987-88 429.74 41.10 2318.79 39.09
1993-94 496.17 42.28 2440.31 37.27
1998-99 412.00 37.00 -------                              ------
2004-05 730.70 40.90 4072.20 37.20
2009-10 737.90 37.70 3546.80 29.80
स्रोतः- समूह सृष्टिका-2001, दीन दयाल उपाध्याय राज्य ग्राम्य विकास संस्थान बख्शी का तालाब, लखनऊ, पृष्ठ-62 एवं प्रतियोगिता दर्पण/भारतीय अर्थव्यवस्था-2012, आगरा, पृष्ठ-78.
योजना आयोग के सदस्य डॉ0 अभिजीत सेन ने भी अपनी एक अध्ययन रिपोर्ट में बताया है कि 2004-05 व 2009-10 के दौरान पॉंच वर्षों में देश में निर्धनता अनुपात में जहां कमी आयी है, वहीं निर्धनों की संख्या में वृद्धि हुई है। रिपोर्ट में बताया गया है कि 2004-05 में देश की कुल 100 करोड़ जनसंख्या में लगभग 37 करोड़ लोग निर्धन थे। इस प्रकार 37.2 प्रतिशत जनसंख्या निर्धनता रेखा के नीचे थी, जबकि 2009-10 में 121 करोड़ जनसंख्या में निर्धनों की संख्या 38.5 करोड़ उन्होंने आकलित की है। डॉ0 अभिजीत सेन के इन आंकड़ों के अनुसार 2009-10 में देश में 32 प्रतिशत जनसंख्या निर्धनता रेखा के नीचे थी।6 (यद्यपि यह आंकड़े योजना आयोग के आधिकारिक आंकड़े नहीं हैं तथापि आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलूवालिया ने इससे सहमति जताई है।)
निर्धनता की स्थिति के आकलन हेतु मानव विकास रिपोर्ट में प्रस्तुत ‘मानव निर्धनता सूचकांक’ निर्धनता के परम्परागत सूचक ‘निर्धनता अनुपात’ से काफी तालमेलयुक्त प्रतीत होता है। वर्ष 1983 व 1993-94 के लिए निर्धनता अनुपात क्रमशः 44.5 प्रतिशत व 36 प्रतिशत रहा है, जबकि ‘मानव निर्धनता सूचकांक’ के तहत इन्हीं वर्षों के लिए यह आकलन क्रमशः 47 प्रतिशत व 39 प्रतिशत रहा है। रिपोर्ट के अनुसार हिमाचल प्रदेश, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, जम्मू-कश्मीर, कर्नाटक एवं केरल में ‘मानव निर्धनता सूचकांक’ में जहां प्रभावी कमी आयी है, वहीं बिहार, उ0 प्र0 व राजस्थान में इसमें मामूली कमी ही दर्ज की गयी है।7
‘‘महात्मा गॉंधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारण्टी अधिनियम’’ नामक कार्यक्रम इसी उद्देश्य की प्राप्ति हेतु केन्द्रीय सरकार द्वारा चलाया जा रहा सफल प्रयास है।8 इसकी अधिसूचना 7 सितम्बर, 2005 को जारी की गयी। इस कानून का लक्ष्य हर वित्तीय वर्ष में प्रत्येक परिवार के ऐसे वयस्क व्यक्ति को कम से कम सौ दिन का रोज़गार सृजन वाला ग़ैर-हुनर काम मुहैया कराना है जो सूखा, वनों की कटाई तथा भू-क्षरण के कारण लगातार पैदा होने वाली ग़रीबी की समस्या के निवारण में मददगार साबित हो ताकि लगातार रोजग़ार सृजन की प्रक्रिया जारी रहे।
2 फरवरी, 2006 को लागू इस कानून के प्रथम चरण में यह सुविधा 200 ज़िलों में उपलब्ध करायी गयी थी। सन् 2007-08 में इस कानून का विस्तार 330 अतिरिक्त ज़िलों में किया गया जबकि बाक़ी ज़िलों को इसमें शामिल करने की अधिसूचना 1 अप्रैल, 2008 को जारी की गयी।9 2 अक्टूबर, 2009 को इसका नाम परिवर्तित करके नरेगा (राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारण्टी अधिनियम) के स्थान पर मनरेगा (महात्मा गॉंधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारण्टी अधिनियम) कर दिया गया।10
पिछले पॉंच सालों से महात्मा गॉंधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारण्टी अधिनियम हमारे विस्तृत ग्रामीण इलाकों में ग़रीबी उपषमन का प्रमुख कार्यक्रम रहा है। जब से यह अधिनियम लागू हुआ है देश के निर्धनतम ज़िलों में लाखों लोगों के जीवन पर इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ा है। निर्धारित न्यूनतम वेतन पर 100 दिनों के रोज़गार की गारण्टी देने वाला (11 सितम्बर, 2012 से सूखा प्रभावित राज्यों में 150 दिन का रोज़गार11) यह कानून पहला ऐसा कानून है जो दरिद्र ग्रामीण परिवारों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने हेतु सरकार को विवश करता है।
मनरेगा का महत्व इस तथ्य में निहित है कि इसका संचालन अनेक स्तरों पर होता हैं। यह संवेदनशील वर्गों को ऐसे वक़्त में रोज़गार उपलब्ध कराता है जब उसके दूसरे साधन कम हो गये हों या वे अपर्याप्त हों जिससे वैकल्पिक रोज़गार उपलब्ध होता है। इससे विकास की प्रक्रिया में समानता का आयाम जुड़ता है। यह काम पाने के कानूनी अधिकार, रोज़गार की मांग करने का अधिकार तथा समय सीमा में रोज़गार उपलब्ध कराने के लिए सरकार को जवाबदेह बनाकर मज़दूरी प्राप्ति के योजनागत कार्यक्रम के लिए अधिकार पर आधारित एक प्रषासनिक ढांचा भी निर्मित करता है। प्राकृतिक संसाधनों की प्राथमिकता निर्धारण तथा स्थायी परिसम्पत्ति के सृजन पर जोर देने के कारण इसमें खेती पर आधारित अर्थव्यवस्था के स्थिर विकास के लिए इंजन बनने की भी सम्भावना है। अन्ततः विकेन्द्रीकरण के इर्द-गिर्द निर्मित इसका संचालन सम्बन्धी स्वरूप तथा स्थानीय समुदाय के प्रति इसकी समानान्तर जवाबदेही कारोबार का नया तरीक़ा प्रस्तुत करती है और पारदर्षिता तथा बुनियादी जनतन्त्र के सिद्धान्तों से संचालित प्रशासनिक सुधार का एक मॉडल भी उपलब्ध करती है। इस मायने में मनरेगा की सम्भावना बुनियादी मज़दूरी सुरक्षा तथा ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सक्रिय करने सहित जनतन्त्र को बदलाव सम्बन्धी अधिकारिता प्रदान करने के एक व्यापक क्षेत्र तक कायम है।
ग्रामीण क्षेत्रों में रोज़गार उपलब्ध कराने की केन्द्र सरकार की महत्त्वाकांक्षी ‘मनरेगा’ योजना के तहत वर्ष 2011-12 के दौरान (19 जनवरी, 2012 तक) 3.80 करोड़ परिवारों को रोज़गार उपलब्ध कराये गये। कुल मिलाकर 122.37 करोड़ श्रम दिवस रोज़गार का सृजन सन्दर्भित वर्ष में इस योजना के तहत किया गया जिनमें से 60.45 करोड़ (49.40 प्रतिशत) महिला, 27.27 करोड़ (22.62 प्रतिशत) अनुसूचित जाति तथा 20.97 करोड़ (17.13 प्रतिशत) अनुसूचित जनजाति के लिए थे। ग्रामीण विकास मंत्री ने यह जानकारी देते हुए 16 अगस्त, 2011 को राज्य सभा में बताया कि महात्मा गॉंधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारण्टी योजना को और ज्यादा प्रभावी बनाने और राज्यों में कार्य निष्पादन को बेहतर बनाने के लिए सरकार ने कई कोशिशें की हैं। इन कदमों में प्रबन्धन और प्रशासनिक मदद संरचना को सुदृढ़ बनाना, प्रशासनिक व्यय की सीमा में दो प्रतिशत की वृद्धि करना, राज्य रोज़गार गारण्टी कोष बनाने पर जोर देना आदि शामिल है। वर्ष 2012-13 के बजट में 33 हजार करोड़ रुपये का आवंटन इस योजना के लिए किया गया है।12
उ0 प्र0 में वित्तीय वर्ष 2012-13 के दौरान कुल जाब-कार्ड धारकों की संख्या 14803579 है, जिसमें 4670268 अनुसूचित जाति, 158936 अनुसूचित जनजाति तथा 9974375 अन्य जातियां हैं। राज्य में 4800993 ऐसे परिवार हैं जो रोज़गार की मांग कर चुके हैं तथा 4781259 परिवारों को रोज़गार उपलब्ध कराया जा चुका है। राज्य में मनरेगा के अन्तर्गत कार्य कर रहे परिवारों की संख्या 1405770 है तथा राज्य में 100 दिन का रोज़गार पूर्ण कर चुके परिवारों की कुल संख्या 27911 है।13
बस्ती जनपद में वित्तीय वर्ष 2012-13 के दौरान कुल जाब-कार्ड धारकों की संख्या 265964 है, जिसमें 77067 अनुसूचित जाति, 157 अनुसूचित जनजाति तथा 188740 अन्य जातियां हैं। जनपद में 97283 ऐसे परिवार हैं जो रोज़गार की मांग कर चुके हैं तथा 96852 ऐसे परिवार हैं जिनको रोज़गार उपलब्ध कराया जा चुका है। जनपद में मनरेगा के अन्तर्गत कार्य कर रहे परिवारों की संख्या 32072 है तथा जनपद में 100 दिन का रोज़गार पूर्ण कर चुके परिवारों की कुल संख्या 991 है।14 जिला विकास योजना वर्ष 2013-14 की बैठक में सी.डी.ओ. आई. पी. पाण्डेय ने मनरेगा के लिए 13 करोड़ 2 लाख 25 हजार रुपये का प्रस्तावित बजट अनुमोदित किया है।15
अन्त में, हम इस निष्कर्ष पर पहुचते हैं कि देश की केन्द्र तथा राज्य सरकारें ग़रीबी उन्मूलन और ग्रामीण विकास के प्रति संवेदनशील हैं। परिणामस्वरूप देश में ग्रामीण क्षेत्रों का निरन्तर विकास एवं ग़रीबी उन्मूलन हो रहा है, लेकिन जितना होना चाहिए उतना नहीं। इसके लिए सरकार और जनता दोनों को आपसी सहयोग से कार्य करते हुए ग़रीबी उन्मूलन एवं ग्रामीण विकास कार्यक्रमों को सफल बनाना चाहिए।
सन्दर्भः-
1. प्रतियोगिता दर्पण/भारतीय अर्थव्यवस्था-2012, आगरा, पृष्ठ-24.
2. अरिहन्त, समसामयिकी महासागर, फरवरी-2013, पृष्ठ-30.
3. प्रतियोगिता दर्पण/भारतीय अर्थव्यवस्था-2012, आगरा, पृष्ठ-210.
4. वही, पृष्ठ-78.
5. दैनिक जागरण, लखनऊ, 7 जनवरी, 2011, पृष्ठ-18 एवं प्रतियोगिता दर्पण/भारतीय अर्थव्यवस्था-2012, आगरा, पृष्ठ-78.
6. प्रतियोगिता दर्पण/भारतीय अर्थव्यवस्था-2012, आगरा, पृष्ठ-79.
7. वही, पृष्ठ-80.
8. कुरुक्षेत्र, दिसम्बर-2009, पृष्ठ-2.
9. भारत-2010, सूचना और प्रसारण मंत्रालय भारत सरकार, पृष्ठ-894.
10. प्रतियोगिता दर्पण, अगस्त-2010, पृष्ठ-94.
11. अरिहन्त, समसामयिकी महासागर, फरवरी-2013, पृष्ठ-110.
12. प्रतियोगिता दर्पण/भारतीय अर्थव्यवस्था-2012, आगरा, पृष्ठ-176.
13. www.nregalndc.nic.in
14. वही.
15. अमर उजाला, गोरखपुर, 21 जून, 2013, पृष्ठ-3.

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