Wednesday, October 23, 2013

मानवाधिकार और भारतीय समाज

      प्रत्येक समाज में व्यक्ति के कुछ ऐसे अधिकार होते हैं जो उनसे छीने नहीं जा सकते जैसे- मानव की गरिमा, स्त्री-पुरुष के समानता का अधिकार आदि। ऐसे अधिकारों को मूलाधिकार, मौलिक अधिकार या मानवीय अधिकार कहते हैं। मानवाधिकार व्यक्ति को मानव होने के नाते तथा जन्म लेते ही प्राप्त हो जाता है। यह वह अधिकार है जो हमारी प्रकृति में अन्तर्निहित है तथा जिसके बिना हम मनुष्य के रूप में जीवित नहीं रह सकते हैं। मानव अधिकार तथा मूल स्वतन्त्रतायें हमें अपने मानवीय गुणों का विकास तथा आध्यात्मिक एवं अन्य आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करने में सहायक होती हैं।
      मानव सभ्यता के सम्पूर्ण इतिहास में विभिन्न व्यक्तियों के अधिकारों और शक्तियों के बीच कुछ न कुछ भेद सदैव बना रहा है। शक्ति और अधिकारों के असमान सामाजिक विभाजन को सामाजिक स्तरीकरण कहा जाता है। स्तरीकरण प्रत्येक समाज की अनिवार्य विशेषता होती है। सामाजिक विकास के इतिहास में विभिन्न कालों तथा समाजों में सामाजिक स्तरीकरण का रूप एक-दूसरे से भिन्न देखने को मिलता रहा है। जिन समाजों में आयु, लिंग, प्रजाति अथवा लिंग के आधार पर समाज को विभिन्न स्तरों में विभाजित किया जाता है, वहॉं बन्द स्तरीकरण की प्रधानता होती है। ऐसे स्तरीकरण में व्यक्ति को अपनी सामाजिक प्रस्थिति में परिवर्तन करने की छूट नहीं होती। इसके विपरीत जिन समाजों में सम्पत्ति, व्यवसाय या व्यक्तिगत योग्यता के आधार पर सामाजिक स्तरीकरण विकसित होता है, उसे हम खुला हुआ स्तरीकरण कहते हैं। ऐसे स्तरीकरण में व्यक्तियों की योग्यता या आर्थिक शक्ति में परिवर्तन होने से उनकी सामाजिक-आर्थिक प्रस्थिति में परिवर्तन हो जाता है।
      बॉटोमोर ने मानव इतिहास मे प्रचलित सामाजिक स्तरीकरण के चार प्रमुख प्रकारों- दास-प्रथा, जागीर प्रथा, जाति प्रथा तथा वर्ग-व्यवस्था का उल्लेख किया है। इसके अतिरिक्त वर्तमान समाजों में स्तरीकरण का एक अन्य रूप भी विद्यमान है जिसे शक्ति-व्यवस्था के रूप में देखा जा सकता है।
      दास-प्रथा सामाजिक स्तरीकरण का सबसे प्रारम्भिक रूप था, जो प्राचीन रोम, यूनान तथा दक्षिण अमेरिका के अनेक भागों में शुरू से विद्यमान रही है। जिस मालिक के पास जितने अधिक दास होते थे, उनकी प्रस्थिति उतनी ही उच्च होती थी। दासों के साथ मालिकों द्वारा पशुता का व्यवहार किया जाता था। यह असमानता के चरम रूप का प्रतिनिधित्व करती है। मध्यकालीन यूरोप में सामाजिक स्तरीकरण का रूप जागीरदारी व्यवस्था के रूप में था। ये जागीरें प्रथा और कानून द्वारा मान्य थी। इसमें तीन वर्ग- पादरी/पुरोहित (उच्च), सामन्त/कुलीन (मध्यम), तथा जनसाधारण (निम्न) होते थे, जिनके कार्य क्रमशः पूजा, लोगों के हितों को देखना और भोजन की व्यवस्था था। जागीरों के मालिक सामन्त (कृषि भूमि के स्वामी) थे। जाति व्यवस्था सामाजिक स्तरीकरण का एक बन्द स्वरूप है, जबकि वर्ग व्यवस्था खुला एवं सार्वभौमिक स्वरूप। शक्ति व्यवस्था वर्तमान युग की विशेषता है, जिसमें राजनैतिक अधिकारों का महत्व बढ़ा है। शक्ति का अभिप्राय राजनैतिक शक्ति से है और राजनैतिक शक्ति का सम्बन्ध व्यक्ति के नेतृत्व, भूस्वामित्व, समर्थकों की संख्या तथा राजनैतिक प्रभाव से है।
      उपर्युक्त सभी व्यवस्थाओं में मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन हुआ है। हमारे पूर्वज (भारतीय ऋषि और मनीषी) बहुत ही दूरदर्शी थे, इसलिए उन्होंने उपर्युक्त सभी से हटकर एक अलग व्यवस्था  अर्थात् वर्ण व्यवस्था का निर्माण किया, जिसमें व्यक्ति के मानवाधिकारों के उल्लंघन की गुन्जाइश तनिक भी न थी। वर्ण व्यवस्था में व्यक्ति की प्रस्थिति/वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) का निर्धारण उसकी योग्यता (गुण) के आधार पर होता था।
      भारतीय ऋषियों और मनीषियों द्वारा निर्मित वर्ण व्यवस्था भी समय के प्रभाव से न बच सकी और दूषित होकर जाति व्यवस्था के रूप में परिवर्तित हो गयी। जाति व्यवस्था में व्यक्ति के प्रस्थिति का आधार है- जन्म या वंशानुक्रम। वर्ण व्यवस्था में जिन वर्णों को उच्च स्थान प्राप्त था, उनके द्वारा अपने संतानों के भी उच्चता को बनाये रखने/निश्चित रखने के लिए एक साजिश के तहत जाति व्यवस्था का निर्माण किया गया।
      भारत में मध्य-काल/मुगल शासन काल में उच्च जातियों द्वारा निम्न जातियों के ऊपर बहुत ज्यादा अन्याय/शोषण/अमानवीय व्यवहार किया गया। यह अमानवीय व्यवहार ब्रिटिश शासन काल तक विद्यमान रहा, क्योंकि अंग्रेजों ने भारतीयों के सामाजिक जीवन में हस्तक्षेप करना मुनासिब नहीं समझा। ब्रिटिश शासन इस माने में महत्वपूर्ण रहा, क्योंकि इस काल में अनेक समाज-सुधारकों ने अपने आन्दोलनों द्वारा समाज-सुधार का कार्य आरम्भ किया। इनमें राजाराम मोहन राय, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, रानाडे, स्वामी दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानन्द तथा श्रीमती एनी बेसेन्ट आदि प्रमुख हैं।
      इस प्रकार स्पष्ट है कि आजादी से पूर्व एक लम्बे समय तक हमारे देश एवं समाज में मानवाधिकारों का हनन हुआ। 15 अगस्त, 1947 को देश आजाद हुआ। देश एवं समाज में पुनः मानवाधिकारों का हनन न हो, इसके लिए भारतीय नीति एवं संविधान निर्माताओं ने संविधान के भाग-तीन में नागरिकों के लिए मौलिक अधिकारों (अनु0 12 से 35 तक) की व्यवस्था की है। ये मौलिक अधिकार हमें राज्य के विरुद्ध प्राप्त हैं। ये इतने महत्वपूर्ण है कि कोई भी भारतीय नागरिक इनके हनन की दशा में संविधान के अनु0 226 के तहत सीधे उच्च न्यायालय तथा अनु0 32 के अन्तर्गत उच्चतम न्यायालय में जा सकता है। इतना ही नहीं भारतीय संविधान के भाग-चार (अनु0 36-51 तक) में राज्य के लिए नीति-निर्देशक तत्वों की व्यवस्था की गयी है। उच्चतम न्यायालय ने केशवानन्द भारती बनाम भारत संघ (1973), मेनका गॉंधी बनाम भारत संघ (1978) तथा शाहबानो प्रकरण (1985) के वाद में मानवाधिकारों के संरक्षण पर महत्वपूर्ण निर्णय दिया है। सर्वोच्च न्यायालय ने यह व्यवस्था की है कि कोई भी व्यक्ति (भारतीय नागरिक) 50 पैसे के पोस्ट कार्ड पर उसको पत्र लिखकर अपने मूलाधिकारों की रक्षा करवा सकता है। सन् 2006 में सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय पुलिस के अपर्याप्त मानवाधिकारों के प्रतिक्रिया स्परूप पुलिस सुधार के आदेश जारी किये।
      स्वतन्त्रता के बाद भी भारत में मानवाधिकारों का उल्लंघन हुआ। इस संदर्भ में 1975-77 में आपात-काल की स्थिति, 1984 में ऑपरेशन ब्लू स्टार और सिक्ख विरोधी दंगे, 1989 में कश्मीरी बगावत (जिसने कश्मीरी पण्डितों का नस्ली आधार पर सफाया किया, हिन्दू मन्दिरों को नष्ट-भ्रष्ट किया, हिन्दुओं और सिक्खों की हत्या की, विदेशी पर्यटकों एवं सरकारी कार्यकर्ताओं का अपहरण किया।), 1992 में हिन्दू-जनसमूह द्वारा विबादित ढांचा ध्वस्त करना और परिणामस्वरूप साम्प्रदायिक दंगे, 2002 में गुजरात में हिंसा तथा सितम्बर-अक्टूबर, 2013 में मुजफ्फरनगर (उ0 प्र0) में हुई साम्प्रदायिक हिंसा आदि घटनाएं प्रमुख हैं। भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में प्रथम एवं द्वितीय विश्वयुद्ध और विभिन्न कालो में मानवाधिकारों का घोर हनन हुआ है। अतः इसके संरक्षण के लिए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी प्राविधान किया गया है। संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अन्तर्गत मानव-अधिकार को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। चार्टर की प्रस्तावना में मानव के मौलिक अधिकारों के प्रति विश्वास प्रकट किया गया है। चार्टर के अनु0 1(13) के अनुसार, संयुक्त राष्ट्र संघ का यह महत्वपूर्ण उद्देश्य है कि वह मानव-अधिकारों तथा मौलिक स्वतन्त्रता को बिना जाति, भाषा, लिंग, धर्म आदि के भेदभाव के प्रोत्साहन प्रदान करे। अनु0 13(ख) के अनुसार, महासभा को यह अधिकार प्राप्त है कि वह मानव अधिकार तथा मौलिक स्वतन्त्रता के लिए अध्ययन कराये तथा अपने सुझाव प्रस्तुत करे। अनु0 55 में प्रावधान है कि स्थायित्व तथा भलाई की दशायें उत्पन्न करने हेतु संयुक्त राष्ट्र का कर्तव्य है कि वह जाति, भाषा, लिंग अथवा धर्म के भेदभाव के बिना मानवीय अधिकारों तथा मौलिक स्वतन्त्रताओं के सार्वभौमिक आदर तथा उनके पालन को प्रोत्साहित करे। अनु0 56 में संयुक्त राष्ट्र के सदस्यों ने संकल्प लिया है कि वे अनु0 55 में वर्णित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए संस्था के सहयोग से पृथक तथा संयुक्त कार्यवाही करेंगे। अनु0 68 के अनुसार, आर्थिक तथा सामाजिक परिषद् मानवीय अधिकारों तथा मौलिक स्वतन्त्रताओं को प्रोत्साहित करने के विषय में कमीशन नियुक्त कर सकती है। अनु0 76(ग) के अनुसार, प्रन्यासी प्रणाली का उत्तरदायित्व है कि वह मानवीय अधिकारों तथा मौलिक स्वतन्त्रताओं को प्रन्यासी क्षेत्रों में लागू करवाने का प्रयास करे। लुइस हेकिन्स (‘‘द यू. एन. ऐण्ड ह्यूमन राइट्स’’ इण्टरनेशनल आर्गनाइजेशन, 1965, पृ. 504.) के अनुसार, ‘‘ संयुक्त राष्ट्र की किसी भी कथा में मानवीय अधिकारों का महत्वपूर्ण स्थान होगा।’’ न्यायाधीश लाटर पैट के अनुसार, ‘‘संयुक्त राष्ट्र चार्टर मानवीय अधिकार के मामले में राज्यों पर कुछ उत्तरदायित्व अधिरोपित करता है।’’ प्रो0 जॉन हम्फ्री के अनुसार, ‘‘संयुक्त राष्ट्र संघ ने मानवीय अधिकारों के विषय में कुछ नियम तथा मानदण्ड स्थापित किये हैं और राज्यों का यह उत्तरदायित्व है कि वे इस विषय में सहयोग करें।’’ परन्तु जहॉं तक मानवीय अधिकारों को लागू कराने का प्रश्न है, अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अन्तर्गत ऐसी प्रभावशाली संस्था का अभाव है। प्रो0 ओपेनहाइम के अनुसार, ‘‘मौलिक मानव-अधिकारों को लागू करने के मामले में अन्तर्राष्ट्रीय विधि में अभी बहुत प्रारम्भिक व्यवस्था है।’’ इस विषय में सबसे प्रमुख रुकावट यह है कि संयुक्त राष्ट्र राज्यों के घरेलू मामलांे में हस्तक्षेप नहीं कर सकता है।
      संयुक्त राष्ट्र संघ की सामान्य महासभा ने 10 दिसम्बर, 1948 को मानवीय अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा को पारित किया। इसमें कुल 30 अनुच्छेद है, जिसमें मानव-अधिकारों तथा मौलिक स्वतन्त्रताओं के विषय में विस्तार से उल्लेख है। इस घोषणा से राष्ट्रों को प्रेरणा तथा मार्गदर्शन प्राप्त हुआ है और वे अपने संविधान व अधिनियमों द्वारा उक्त घोषणा को क्रियान्वित करने के लिए अग्रसर हुए हैं। इस घोषणा के बाद महासभा ने सभी सदस्य देशों से पुनरावेदन किया कि वे इस घोषणा का प्रचार करें और देशों एवं प्रदेशों की राजनैतिक स्थिति पर आधारित भेदभाव का विचार किये बिना विशेषतः विद्यालयों और अन्य शिक्षण संस्थाओं में इसके प्रचार, प्रदर्शन, पठन और व्याख्या का प्रबन्ध करें।
      भारत सरकार ने मानवाधिकार के संरक्षण के लिए आजादी के पूर्व एवं पश्चात में निम्नलिखित अधिनियमों को पारित किया है-
1. सती-प्रथा निरोधक अधि0, 1829.
2. हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधि0, 1856.
3. बाल-विवाह निरोधक अधि0, 1929.
4. हिन्दू स्त्रियों का सम्पत्ति अधिकार अधि0, 1937.
5. आपराधिक जनजाति अधि0, 1952.
6. विशेष विवाह अधि0, 1954.
7. हिन्दू विवाह अधि0, 1955.
8. अस्पृश्यता अपराध अधि0, 1955.
9. सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) अधि0, 1958.
10. दहेज निराधक अधि0, 1961.
11. जम्मू और कश्मीर जन सुरक्षा अधि0, 1978.
12. अनु0 जाति और अनु0 जनजाति (अत्याचार निवारण) अधि0, 1989.
13. पंचायती राज अधि0, 1992.
14. मानवाधिकार संरक्षण अधि0, 1993. (राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की स्थापना)
15. सूचना का अधिकार (मूल अधिकार) अधि0, 2005.
16. राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधि0, 2005.
17. घरेलू हिंसा अधि0, 2005.
      उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भारत तथा अन्य देशों में मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन हुआ है तथा इसके संरक्षण के लिए राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास भी हुए हैं/हो रहे हैं, किन्तु यह समस्या आज भी विद्यमान है। केवल कानून बना देने से इस समस्या का समाधान सम्भव नहीं है। इस समस्या से निजात पाने के लिए यह आवश्यक है कि हम सभी गीता के उपदेश पर अमल करें अर्थात् ऐसा कोई भी कृत्य दूसरे के लिए न करें जो यदि दूसरा व्यक्ति वही कृत्य हमारे साथ करता है तो उससे हमें कष्ट का अनुभव हो या हमारे प्रतिकूल हो।

संदर्भः-
1. डॉ0 जी0 के0 अग्रवाल, ग्रामीण समाजशास्त्र, एसबीपीडी पब्लिशिंग हाउस आगरा, 2010.
2. टी. बी. बॉटोमोर, इलिएट्स एण्ड सोसाइटी, 1964.
3. टी. बी. बॉटोमोर, दि सोशिलिस्ट इकोनॉमी, 1990.
4. डॉ0 जे0 एन0 पाण्डेय, भारत का संविधान, सेन्ट्रल लॉ एजेन्सी इलाहाबाद, 1994.
5. लुइस हेकिन्स, ‘‘द यू. एन. ऐण्ड ह्यूमन राइट्स’’ इण्टरनेशनल ऑर्गनाइजेशन (1965).
6. एच0 लाटरपैट, इण्टरनेशनल लॉ ऐण्ड ह्यूमन राइट्स.
7. प्रो0 जॉन हम्फ्री, इण्टरनेशनल ऑर्गनाइजेशन, वाल्यूम 24, संख्या 1 (1970).
8. ओपेनहाइम्स, इण्टरनेशनल लॉ.
9. डॉ0 एस0 के0 कपूर, अन्तर्राष्ट्रीय विधि, सेन्ट्रल लॉ एजेन्सी इलाहाबाद, 1994.
10. जे0 जी0 स्टार्क, इन्ट्रोडक्शन टु इन्टरनेशनल लॉ, 1989.
11. www.hi.wikipedia.org/wiki/
12. डॉ0 महेन्द्र कुमार मिश्रा, मानवाधिकार एवं सामाजिक न्याय, एजुकेशनल पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स, लक्ष्मीनगर दिल्ली, 2011.
13. डॉ0 विप्लव, मानवाधिकार के आइने में महिलाएं, विस्टा इण्टरनेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, 2011.

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Friday, October 4, 2013

पंचायती राज व्यवस्था का ग्रामीण जीवन पर प्रभाव

     भारतीय संविधान के अनुच्छेद-40 (भाग-4, नीति-निर्देशक तत्व) में राज्यों को पंचायत गठन का निर्देश दिया गया है। नीति-निर्देशक तत्वों में यह घोषणा की गयी है कि प्रत्येक राज्य पंचायतों के पुनर्गठन के लिए प्रयत्न करेगा तथा उन्हें ऐसी शक्तियां और अधिकार प्रदान करेगा जिससे पंचायतें स्वायत्त शासन की इकाई के रूप में कार्य कर सकें। पंचायती राज को लेकर बलवन्त राय मेहता समिति (1957), अशोक मेहता समिति (1977), डॉ0 जी0 वी0 के0 राव समिति (1985) और एल0 एम0 सिंघवी समिति (1986) ने महत्वपूर्ण सिफारिशें की थी। 1993 में संविधान में 73 वें और 74 वें संविधान संशोधन के तहत पंचायत राज व्यवस्था को संवैधानिक मान्यता/दर्जा प्रदान की गयी। इस व्यवस्था के अन्तर्गत महिलाओं को 33 प्रतिशत भागीदारी का सपना साकार हुआ। पंचायती राज मंत्रालय 27 मई, 2004 को अस्तित्व में आया। इस मंत्रालय का गठन 73 वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 द्वारा जोड़े गये संविधान के खण्ड-9 के क्रियान्वयन की निगरानी के लिए किया गया।1
     उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री स्वर्गीय पंडित जवाहर लाल नेहरू ने 2 अक्टूबर, 1959 को राजस्थान के नागौर में ही देश में पंचायती राज का उद्घाटन किया गया।
     वर्तमान में सम्पूर्ण भारत में 2,27,697 ग्राम पंचायतें, 5,913 पंचायत समितियां तथा 475 जिला परिषदें कार्यरत हैं। इस समय देश में कुल पंचायतों में निर्वाचित प्रतिनिधियों की संख्या लगभग 28.10 लाख है, जिसमें 36.87 प्रतिशत महिलाएं हैं।2
     लोकतान्त्रिक विकेन्द्रीकरण के एक साधन के रूप में पंचायत राज व्यवस्था ने भारत के ग्रामीण जीवन को व्यापक रूप से प्रभावित किया है। पंचायत राज व्यवस्था आज देश के सभी भागों में कार्यान्वित हो चुकी है तथा इसकी विभिन्न इकाइयों द्वारा एक समन्वित विकास कार्यक्रम को व्यावहारिक रूप दिया जा रहा है। इस व्यवस्था के अनुसार प्रजातान्त्रिक विकेन्द्रीकरण से सम्बन्धित सभी कार्यक्रमों को ग्रामीण स्तर पर लागू करने के लिए पंचायत, सहकारिता तथा विद्यालय तीन महत्वपूर्ण संस्थायें  हैं। एक विशेष क्षेत्र में विकास कार्यक्रमों को लागू करने का दायित्व निर्वाचित सदस्यों वाली ग्राम पंचायत का है जबकि आर्थिक विकास का कार्य सहकारी समितियों के माध्यम से पूरा किया जाता है। ग्रामीण विद्यालय एक ऐसा सामाजिक केन्द्र बन गया है जिसके द्वारा ग्रामीणों को शिक्षात्मक, मनोरंजनात्मक तथा सांस्कृतिक आवश्कताओं को पूरा किया जाता है। विभिन्न सहयोगी संगठनों, जैसे- महिला एवं युवा मण्डलों, कृषक तथा कारीगर समितियों आदि को अपने-अपने क्षेत्र की पंचायतों के विकास कार्यक्रमों से इस प्रकार मिला दिया गया है जिससे पंचायत राज व्यवस्था अधिक से अधिक प्रभावपूर्ण ढंग से अपना कार्य कर सके। इन सम्पूर्ण प्रयत्नों के फलस्वरूप आज पंचायत राज व्यवस्था ने ग्रामीण जीवन को व्यापक रूप से प्रभावित किया है। विभिन्न अध्ययनों के आधार पर पंचायत राज व्यवस्था के प्रमुख प्रभावों को निम्नांकित ग्रामीण क्षेत्रों में स्पष्ट किया जा सकता है-
  1. पंचायत राज व्यवस्था ने परम्परागत शक्ति-संरचना में परिवर्तन उत्पन्न करके जातिगत निर्योग्यताओं तथा जातिगत निषेधों के प्रभाव को कम कर दिया है। एवेलेन वुड ने यह स्पष्ट किया है कि पंचायत राज व्यवस्था के फलस्वरूप ग्रामीणों को मतदान का अधिकार मिला जिससे जाति-संरचना के केवल ध्रुवीकरण की प्रक्रिया ही आरम्भ नहीं हुयी बल्कि विभिन्न जातियों को एक दूसरे के निकट सम्पर्क में आने के अवसर भी प्राप्त हुए हैं।3 डॉ0 एम0 एन0 श्रीनिवास के अनुसार पंचायती राज की स्थापना से निम्न जातियॉं विशेषकर हरिजनों में आत्म सम्मान की भावना बढ़ने के साथ ही शक्ति की एक नवीन अनुभूति का संचार हुआ है।4
  2.  ग्रामों की राजनीतिक संरचना भी आज नवीन परिवेश ग्रहण कर रही है। ग्रामों की शक्ति-संरचना अब आनुबंशिक मुखिया अथवा वृद्ध व्यक्तियों के हाथों में केन्द्रित नहीं है बल्कि इसमें जन-साधारण की सहभागिता बढ़ती जा रही है। ग्रामीण नेतृत्व अब मुख्य रूप से उन व्यक्तियों के हाथों में केन्द्रित होने लगा है जो मध्यम वर्ग के सदस्य हैं अथवा जिनके परिवार का परम्परागत शक्ति-संरचना में कोई प्रत्यक्ष योगदान नहीं था। जी0 आर0 रेड्डी ने अपने अध्ययन के द्वारा यह ज्ञात किया कि पंचायत राज की त्रि-स्तरीय व्यवस्था में जिला परिषदों और पंचायत समितियों के विभिन्न पदों पर आज वे ही व्यक्ति आसीन हैं जो आर्थिक रूप से सम्पन्न हैं परन्तु ग्रामीण स्तर पर अब 60 प्रतिशत से 68 प्रतिशत पिछड़ी और अनुसूचित जातियों के सदस्यों का प्रतिनिधित्व हो चुका है तथा इनमें से 72 प्रतिशत व्यक्ति ऐसे हैं जिनकी वार्षिक आय 2500 रूपये से भी कम है।5 ग्रामीण नेतृत्व में युवा सदस्यों का प्रभाव बढ़ा है तथा राजनीतिक आकांक्षाओं ने जाति, धर्म और नातेदारी के परम्परागत आधारों को दुर्बल बना दिया है।6 पर्वथम्मा ने मैसूर के गॉंवों का अध्ययन करके इसी प्रकार के निष्कर्ष प्रस्तुत किये हैं।7
  3. पंचायती राज व्यवस्था से सम्बद्ध विभिन्न विकास कार्यक्रमों के फलस्वरूप ग्रामीणों के जीवन-स्तर तथा प्रति व्यक्ति आय में भी पर्याप्त सुधार हुआ है। आर्थिक सुधार के साथ ग्रामीण जीवन में व्याप्त अन्धविश्वासों तथा कुरीतियों का प्रभाव पहले की तुलना में बहुत कम हो चुका है। आज ग्रामीण समुदाय में पहले की अपेक्षा हीनता और निराशा की भावना स्पष्ट रूप से नहीं दिखायी देती।
  4. पंचायती राज के प्रभाव से आज ग्रामीण गतिशीलता में भी वृद्धि हुई है। यह गतिशीलता सामाजिक तथा आर्थिक सभी क्षेत्रों में विद्यमान है।
  5. गॉंव में शिक्षा का प्रसार होने तथा स्वास्थ्य सुविधाओं में वृद्धि होने से संक्रामक रोगों की समस्या पहले से काफी कम हो गयी है। पीने के पानी की व्यवस्था, स्वच्छता के नियमों के प्रति जागरूकता तथा स्वास्थ्यकारी आवास व्यवस्था के फलस्वरूप ग्रामीण स्वास्थ्य के स्तर में भी सुधार हुआ है।
  6. न्याय के क्षेत्र में भी पंचायत राज व्यवस्था से सुधार हुआ है क्योंकि न्याय पंचायतें सस्ता और शीघ्र न्याय देने का प्रयत्न करती हैं।
  7. पंचायती राज व्यवस्था का ग्रामीण जीवन पर एक स्पष्ट प्रभाव जाति पंचायतों के प्रभाव में होने वाले ह्रास के रूप में देखने को मिलता है। पंचायती राज व्यवस्था के कारण अब जाति पंचायतों का प्रभाव इतना कम हो गया है कि अधिकांश गॉंवों में जाति पंचायतों का अस्तित्व ही देखने को नहीं मिलता। फलस्वरूप ग्रामीणों का जीवन अधिक स्वतन्त्र, उदार और समतावादी बन गया है।
  8. अनेक लाभकारी प्रभावों के बाद भी पंचायती राज व्यवस्था ने ग्रामीण जीवन में कुछ विघटनकारी प्रवृत्तियों को भी जन्म दिया है जिनमें गुटबन्दी, बढ़ते हुए संघर्ष और व्यक्तिवादिता आदि प्रमुख समस्यायें हैं। पी0 एन0 रस्तोगी ने अपने अध्ययन के आधार पर यह स्पष्ट किया कि पंचायत राज व्यवस्था के फलस्वरूप ही ग्रामीण क्षेत्रों में पारस्परिक सहयोग के स्थान पर गुटवाद को प्रोत्साहन मिला है।8

     उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि पंचायती राज व्यवस्था ने ग्रामीण क्षेत्रों में अनेक स्वस्थ परिवर्तन उत्पन्न करने के साथ ही कुछ ऐसी समस्याओं को भी जन्म दिया है, जो ग्रामीण जीवन के विघटन के लिए उत्तरदायी हैं। आज गॉंवों में भी नगरों के समान व्यक्तिवादिता तथा मूल्यों के ह्रास की समस्याएं उत्पन्न हुई हैं। कुछ लोगों का मत है कि ये दुष्परिणाम पंचायती राज व्यवस्था के न होकर कार्यक्रमों के दोषपूर्ण क्रियान्वयन के हैं। वास्तविकता यह है कि पंचायती राज व्यवस्था के दुष्परिणाम इससे प्राप्त लाभों की तुलना में बहुत कम हैं। किसी भी समाज अथवा समुदाय की प्रगति का वास्तविक आधार उसके सदस्यों की सामाजिक और आर्थिक जागरूकता है। पंचायत राज व्यवस्था ने ऐसी जागरूकता उत्पन्न करने में निश्चय ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यदि कुछ क्षेत्रों में पंचायती राज व्यवस्था अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने में असफल रही है तो इसका कारण स्वयं यह व्यवस्था न होकर ग्रामीण पर्यावरण का परम्परागत असन्तुलन तथा सरकार की दोषपूर्ण नीतियॉं हैं। अतः आज गॉंवों में व्याप्त जातिवाद, दलबन्दी की भावना, अशिक्षा, उचित नेतृत्व का अभाव, पंचायतों के कार्यों की लम्बी सूची, पंचायतों की निम्न आर्थिक स्थिति तथा चुनावों की दोषपूर्ण प्रक्रिया इत्यादि वे महत्वपूर्ण कारण हैं जिनके फलस्वरूप पंचायती राज व्यवस्था अधिक सफल नहीं हो सकी है।
संदर्भः-
1.    डॉ0 जी0 के0 अग्रवाल, ग्रामीण समाजशास्त्र, एसबीपीडी पब्लिशिंग हाउस आगरा, 2010.
2.    ज्ञान चन्द्र यादव, ज्ञान भारत-2010, ज्ञान पब्लिशिंग हाउस दिल्ली-54, पृष्ठ-152.
3.    एवेलेन वुड, ‘कास्ट्स लेटेस्ट इमेज’, इकोनॉमिक वीकली, 1964, 16(4) पृष्ठ-951-52.
4.    डॉ0 एम0 एन0 श्रीनिवास, आधुनिक भारत में सामाजिक परिवर्तन, 1964.
5.    जी राम रेड्डी, ‘सोशल कम्पोजीसन ऑफ पंचायत राज: बैकग्राउण्ड ऑफ पोलीटिकल एक्जक्यूटिब्स इन आन्ध्रा’, इकोनॉमिक एण्ड पोलीटिकल वीकली, वालूम III, No. 50, 23 दिसम्बर, 1967, पृष्ठ-2211.
6.    जी राम रेड्डी, पंचायत राज और रूरल डेबलपमेण्ट इन आन्ध्र प्रदेश (1974), पृष्ठ-52.
7.    सी0 पर्वथम्मा,‘ इलेक्सन्स एण्ड ट्रेडिसनल लीडरशिप इन मैसूर विलेज’, इकोनॉमिक वीकली (1964),   No. 11.
8.    पी0 एन0 रस्तोगी, ‘पोलराइजेशन, पॉलिटिक्स एण्ड इकोनॉमिक इन रूरल लाइफ इन ईस्ट यू0 पी0’, इण्डियन जोरिनल ऑफ सोशल वर्क (1968), 28(4), पृष्ठ-371-77.
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भारत में महिला आरक्षण विधेयक एवं ग्रामीण महिलाओं में राजनीतिकजागरूकता

     भारत तथा विश्व के अधिकांश देशों में स्त्रियों की प्रस्थिति विशेषतः राजनीतिक स्थिति को लेकर सिद्धान्त और व्यवहार के बीच एक बड़ा अन्तर देखने को मिलता है। एक ओर इस्लाम के अतिरिक्त सभी धर्म तथा सामाजिक कानून स्त्रियों की प्रतिष्ठा और सम्मान को सबसे अधिक महत्व देते हैं तो दूसरी ओर व्यवहार में अधिकांश समाजों द्वारा स्त्रियों को राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक अधिकारों से वंचित किया जाता रहा है। भारत में हिन्दुओं के वैदिक धर्म में जहॉं स्त्रियों को सम्पत्ति, ज्ञान और शक्ति का प्रतीक मानकर उन्हें लक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा के रूप में मान्यता दी गयी, वहीं स्मृतिकालीन धर्म-शास्त्रों में स्त्रियों को दासी अथवा वस्तु का रूप दे दिया गया जिसके साथ पुरुष किसी भी तरह का मनमाना व्यवहार कर सकते हैं। पुरुष प्रधान सामाजिक व्यवस्था में स्त्रियों को पुरुषों की वासना-पूर्ति का एक साधन मात्र समझा जाता रहा है। यह बात उन सभी जातियों और वर्गों के लिए सच है कि जिनकी प्रणाली सामन्तवादी विचारों से प्रभावित है। हमारा सामाजिक जीवन मुख्य रूप से चार क्रियाओं से सम्बन्धित है- उत्पादन की क्रिया, प्रजनन, परिवार का प्रबन्ध तथा बच्चों का समाजीकरण। व्यावहारिक रूप से इन सभी क्रियाओं पर पुरुषों का ही एकाधिकार है। अधिकांश व्यक्ति स्त्रियों द्वारा नौकरी करने, उच्च शिक्षा ग्रहण करने अथवा परिवार के प्रबन्ध में हस्तक्षेप करने को न केवल संदेह की दृष्टि से देखते हैं बल्कि इसे अपने अहं के विरुद्ध भी मानते हैं। इक्कीसवीं सदी के तथाकथित समतावादी समाज में भी महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों में अधिक कमी नहीं हुई है, यद्यपि इन अत्याचारों के रूप में परिवर्तन अवश्य हो गया है। अनेक महिला संगठनों द्वारा चलाए जाने वाले आन्दोलन भी उनकी प्रस्थिति में अधिक परिवर्तन नहीं ला सके।
     भारत में आज महिलाओं का राजनैतिक सक्तिकरण एक महत्वपूर्ण मुद्दा बन गया है। भारत एक प्रजातान्त्रिक देश है और प्रजातन्त्र में जन-जन की भागीदारी आवश्यक है। यदि इस तर्क को स्वीकार किया जाय कि भारत जैसे देश में जहां महिलाओं की संख्या लगभग 49 प्रतित् है उस अनुपात में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बहुत कम है, ऐसी परिस्थिति में महिलाओं के राजनीतिक जागरूकता के प्रश्न महत्वपूर्ण हो जाते हैं। राजनैतिक सक्तिकरण से अभिप्राय है राजनैतिक निर्णय लेने की संस्थाओं में महिलाओं का उचित प्रतिनिधित्व। यह माना जाता है कि महिलाओं का बहुत बड़ा वर्ग सामाजिक भेद-भाव का शिकार है और उनको निर्णय लेने का मौका नहीं मिलता है, राजनैतिक सक्तिकरण भागीदारी की इस आवश्यकता को भी बढ़ाता है। इस बात से यह स्पष्ट होता है कि लोकतान्त्रिक व्यवस्था में राजनैतिक भागीदारी उन लोगों की सुनिश्चित होनी चाहिए जो अभी तक इससे वंचित रहे हैं। महिलाओं के राजनैतिक जागरूकता का अर्थ है कि इन्हें हर स्तर की विधायी संस्थाओं में प्रतिनिधित्व मिले इस बात का उन्हें सम्यक् ज्ञान हो और उसमें वे निःसंकोच अपनी सहभागिता सुनिश्चित कर सकें। यह इतिहास रहा है कि राजनैतिक दलों ने कभी भी स्वेच्छा से महिलाओं को प्रतिनिधित्व नहीं दिया जिसके कारण भारतीय संविधान में 73वें संशोधन, 1992 के माध्यम से ग्रामीण पंचायतों के स्तर पर महिलाओं के प्रतिनिधित्व को सुनिष्चित किया गया। संशोधन की धारा 243 डी (2) इस बात का निर्दे देती है कि सम्पूर्ण पदों के एक तिहाई पद महिलाओं के लिए सुरक्षित रहेंगे। धारा 243 डी (5) एवं (6) द्वारा भी पंचायती राज्य के अन्य पदों पर भी इसी प्रकार के आरक्षण का निर्देश दिया गया है।
    भारत सरकार ने लिंग आधारित विभिन्नताओं को दूर करने की यात्रा एक तरह से सन् 1953 में महिला कल्याण की नीति अपनाकर शुरू की थी बाद में यह यात्रा महिला विकास तक पहुंची और अब महिला सक्तिकरण का नारा सामने आया है। महिला सक्तिकरण की राष्ट्रीय नीति का उद्देश्य महिलाओं की प्रगति एवं विकास को सुनिश्चित करना तथा आत्म शक्ति को बढ़ाना है।
     महिलाओं को राजनीतिक प्रक्रिया में सशक्त भागीदारी देने के लिए विधायिका में आरक्षण के द्वारा इनके लिए स्थान सुनिश्चित करना आवश्यक है इसी विचार को ध्यान में रखकर भारत सरकार ने संसद में बार-बार विधेयक प्रस्तुत करके महिलाओं को आरक्षण प्रदान करने का प्रयास किया है। उल्लेखनीय है कि महिला आरक्षण विधेयक को 1996, 1998, व 1999 में भी लोक सभा में पेश किया गया था किन्तु तीनों बार पारित होने से पूर्व लोक सभा का कार्यकाल समाप्त हो जाने के कारण यह निरस्त हो गया था। विधेयक को 12 वर्ष पूर्व तत्कालीन प्रधानमन्त्री एच0 डी0 देवगौड़ा की सरकार ने 81वें संविधान संशोधन विधेयक के रूप में 12 सितम्बर, 1996 को लोक सभा में पेश किया था। यह विधेयक संयुक्त संसदीय समिति को भेज दिया गया था किन्तु 11वीं लोक सभा भंग हो जाने की वजह से यह निरस्त हो गया। बाद में दिसम्बर, 1998 में तत्कालीन अटल बिहारी बाजपेयी सरकार ने लोक सभा में 84वां संविधान संशोधन विधेयक पेशकर महिला आरक्षण की दिशा में एक और प्रयास किया। 12वीं लोक सभा भंग हो जाने के कारण यह विधेयक फिर निरस्त हो गया। लोक सभा में 23 दिसम्बर, 1999 को यह विधेयक पेश करने की एक और कोशिश हुई लेकिन राजनीतिक सहमति के अभाव में यह विधेयक आगे नहीं बढ़ पाया।
     सरकार ने बहुप्रतीक्षित और विवादित महिला आरक्षण विधेयक (108वां संविधान संशोधन विधेयक) मई, 2008 में संसद में प्रस्तुत किया। यूपीए सरकार के न्यूनतम साझा कार्यक्रम के एक बड़े वायदे को पूरा करते हुए तत्कालीन विधि मन्त्री हंसराज भारद्वाज लोक सभा एवं राज्य विधान सभाओं में महिलाओं के लिए एक तिहायी सीटों के आरक्षण के प्रावधान वाले इस विधेयक को 6 मई, 2008 को राज्य सभा में प्रस्तुत किया। सपा व जनता दल (यू) के सांसदो के भारी विरोध व हाथापायी के बीच अपने दल की महिला सांसदों के सुरक्षा घेरे में विधि मन्त्री इस विवादास्पद विधेयक को प्रस्तुत करने में सफल रहे। विधेयक पेश होने के साथ ही पीठासीन अधिकारी पी0 जे0 कुरियन ने सदन को अनिश्चित काल के लिए स्थगित करने की घोषणा कर दी। विधेयक को संसदीय समिति को सन्दर्भित किया गया है।
     विधेयक के उद्देश्यों और कारणों सम्बन्धी वक्तव्यों में कहा गया है कि सरकार ने इस सम्बन्ध में व्यक्त की गयी आम सहमति को ध्यान में रखते हुए राज्य सभा और राज्य विधान परिषदों सहित सभी विधायी निकायों में महिलाओं के लिए आरक्षण का उपबन्ध करने के वास्ते इससे पहले पेश किये गये विधेयक के आधार पर एक विधेयक पुनः पेश करने का निश्चय किया है।
     विधेयक में कहा गया है कि 108वें सविधान संशोधन अधिनियम 2008 के उपबन्ध आरम्भ से 15 वर्ष की अवधि की समाप्ति पर प्रभावी नहीं रहेंगे। इस विधेयक के जरिये संविधान के अनुच्छेद 239क, 331, और 333 में संशोधन किया जायेगा। इसी तरह अनुच्छेद 330 के पश्चात एक नया अनुच्छेद 330क, 332 के बाद 332क और 334 के बाद 334क जोड़ कर महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित करने की व्यवस्था की गयी है। 14 साल के लम्बे इन्तजार के बाद 9 मार्च, 2010 को महिलाओं को लोकसभा और विधानसभाओं में आरक्षण देनें के प्रावधान वाला (108 वॉं संविधान संशोधन) विधेयक राज्य सभा में पारित हो गया। लोक सभा में पास होना अभी बाकी है।
     उल्लेखनीय है कि इससे पूर्व संसद द्वारा 73वां और 74वां संविधान संशोधन अधिनियम 1993 पारित किये गये। इस संशोधन द्वारा ग्राम पंचायतों तथा नगर पालिकाओं में क्रमश: अनुच्छेद 343घ तथा अनुच्छेद 343न द्वारा आरक्षित एवं अनारक्षित वर्ग की महिलाओं हेतु 33 प्रतिशत् आरक्षण की व्यवस्था की गयी है इस व्यवस्था के क्रियान्वयन से देश के सभी प्रान्तों में ग्रामीण और शहरी पंचायतों के सभी स्तरों पर कई महिलायें जन प्रतिनिधियों के रूप में अहम भूमिका का निर्वाह कर रही हैं।
     राजधानी दिल्ली में पंचायती राज व्यवस्था के 15 वर्षों की उपलब्धियों तथा स्थानीय  लोक तन्त्र को अधिक सशक्त बनाने के मुद्दे पर आयोजित राष्ट्रीय सम्मेलन में प्रधान मन्त्री डॉ0 मनमोहन सिंह ने कहा है कि पंचायती राज की सबसे बड़ी सफलता यह है कि इसने महिलाओं का राजनीतिक एवं सामाजिक सशक्तिकरण किया है। सम्पूर्ण निर्वाचित पंचायत सदस्यों में 9 लाख 75 हजार महिला प्रतिनिधि हैं। एक तथ्य यह भी है कि यह संख्या विश्व में कुल निवार्चित महिला प्रतिनिधियों से भी ज्यादा है। बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेष, छत्तीसगढ़, हिमांचल प्रदेश और उत्तराखण्ड में 50 प्रतिशत् आरक्षण दिये गये हैं। इन राज्यों में महिलाओं ने कई कीर्तिमान स्थापित किये हैं।
     पंचायतों में आरक्षण के फलस्वरूप जो महिलायें चुनकर आई हैं वे इस सत्य को उजागर कर रही हैं कि महिलायें निष्क्रिय और निस्सहाय नहीं हैं। आरक्षित सीटों के अलावा अन्य सीटों पर चुना जाना इसका संकेत है। सवर्ण जाति के साथ-साथ अनु0जाति एवं अनु0जनजाति की महिलायें भी अब पंचायत में प्रतिनिधित्व कर सकती हैं।
     भारत की पंचायतों में महिलाओं को 33 प्रतिशत् आरक्षण मिल तो गया है लेकिन विधान सभा और संसद के गलियारों में महिलाओं की अपेक्षित भागीदारी सुनिश्चित करने में राष्ट्रीय राजनीतिक दल ईमानदारी नहीं दिखा रहे हैं। हमारे यहां संसद में महिलाओं का प्रतिशत् पाकिस्तान, नेपाल और ईराक से भी कम है। अन्य देशों की तुलना की जाय तो इस मामले में रवाण्डा सबसे ऊपरी पायदान पर है। यहां लोवर हाउस में 56.30 प्रतिशत् महिलायें हैं।
     आजादी के 60 साल बाद भी लोक सभा के आधी आबादी का प्रतिनिधित्व करने के लिए औसतन लगभग 50 महिलायें ही पहॅंची हैं। ये शर्मनाक आंकड़े तब और अखरते हैं जब हम याद करते हैं कि अगर पिछले आम चुनाव से पहले उक्त विधेयक पारित कर दिया गया होता तो आज लोग सभा में कम से कम 179 महिलायें होतीं।
     विधायिका में महिला आरक्षण के मामले पर सभी गतिरोधों को समाप्त करने के लिए एक नया प्रस्ताव सरकार के पास विचाराधीन है। इस प्रस्ताव के अन्तर्गत महिलाओं को समुचित प्रतिनिधित्व देने के लिए संसदीय एवं विधान सभायी सीटों की वर्तमान संख्या में एक तिहायी की वृद्धि कर उसे महिलाओं के लिए आरक्षित करने की योजना है।
     लोक सभा में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को वर्षगत क्रम में निम्न रूप से सारणीबद्ध किया जा रहा है-
            वर्ष                        महिला सदस्य संख्या
           1952                            22
           1957                            27
           1962                            34
           1967                            31
           1971                            22
           1977                            19
           1980                            28
           1984                            44
           1989                            27
           1991                            39
           1996                            39
           1998                            43
           1999                            49
           2004                            44
           2009                            59
           2014                            61
     देश के संसदीय इतिहास में पहली बार इतनी अधिक संख्या में महिलायें पॅंहुची हैं हालांकि महिलाओं की संख्या को लोक सभा में 10 फ़ीसदी तक पहॅंचने में 60 वर्ष से ज्यादा का समय लग गया। महिला आरक्षण पर उम्मीद की किरण दो चेहरों पर आकर टिकी है- एक ख़ुद यूपीए की अध्यक्षा सोनिया गॉंधी और दूसरी तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी। यूपीए की पहली बैठक में ही ममता बनर्जी ने महिलाओं को संसद और विधान सभाओं में 33 प्रतिशत् आरक्षण को जल्द से जल्द लागू करवाने की मांग कर वर्षों पुरानी महिलाओं की इस इच्छा को एक नयी गम्भीरता दे दी है। वैसे भी कांग्रेस ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में साफ़-साफ़ लिखा है कि कांग्रेस इस बात का भरोसा देती है कि अगर 15वीं लोक सभा में महिला आरक्षण बिल पास हो गया तो 16वीं लोक सभा के चुनाव का आधार यही विधेयक हो सकता है। जिसके बाद सदन में 33 प्रतिशत् महिलायें चुनकर आ सकती हैं
     प्रधान मन्त्री डॉ0 मनमोहन सिंह की पिछली सरकार में 10 महिलायें मन्त्री थीं जबकि मौजूदा सरकार में केवल 8 महिलाओं को ही शामिल किया गया है। जबकि 79 सदस्यों की इस मन्त्रिपरिषद् में महिलाओं की संख्या 26 होनी चाहिए।
     नारी सशक्तिकरण की वास्तविक उपलब्धि यह है कि वह स्वयं पर विश्वास रखकर अपने नारीत्व पर गर्व करे। अपनी शर्तों पर ज़िन्दगी जीने का उसमें साहस हो। यह काम महिला आरक्षण बिल बख़ूबी निभा सकता है। पंचायती राज व्यवस्था में महिलाओं ने अनेक उदाहरण प्रस्तुत किये हैं जैसे- आन्ध्र प्रदेश के छोटे से गांव कलवा का सरपंच फ़ातिमा बी जिसे संयुक्त राष्ट्र संघ के पूर्व महासचिव कोफी अन्नान ने पंचायत में महत्वपूर्ण काम करने के लिए स्वयं सम्मानित किया। अतः पंचायत से लेकर संसद तक सभी स्तरों पर निर्णय प्रक्रिया में समान अधिकारो और स्थान के लिए महिलाओं की सशक्तिकरण का प्रश्न राजनीतिक रूप से हल करना होगा। सभी राजनीतिक दलों के नेता को चाहिए कि आपस के मतभेदों को भुलाकर तथा पुरुष मानसिकता के पूर्वाग्रह से निकल कर इस बिल पर आम सहमति बनायें और महिला सशक्तिकरण की प्रक्रिया को तीव्रता दें।
     उपर्युक्त विश्लेषणों से स्पष्ट है कि महिला विकास का सवाल मुख्यतः एक राजनीतिक सवाल है और जब तक इसे राजनीतिक सवाल के रूप में नहीं देखा जायेगा और देश की राजनीति एवं सत्ता में महिलाओं को समान भागीदारी नहीं दी जायेगी तब तक महिलाओं की प्रगति अधूरी ही रहेगी। महिला आरक्षण एक अस्थायी आन्तरिक व्यवस्था ही हो सकती है यह सच्ची लोकतान्त्रिक प्रक्रिया और आम महिलाओं की मुख्याधारा में भागीदारी का विकल्प नहीं हो सकता परन्तु उस दिशा में एक सही कदम है। अन्ततः महिलाओं में सकारात्मक चेतना तथा समान अवसर सुविधायें दिया जाना चाहिए फिर भी उन्हें अपने पैरों पर ख़ुद खड़ा होना होगा और जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में अपनी क्षमता, योग्यता, विवेक तथा परिश्रम से आगे बढ़ना होगा।

संदर्भः-
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