प्रत्येक समाज में व्यक्ति के कुछ ऐसे अधिकार होते हैं जो उनसे छीने नहीं जा सकते जैसे- मानव की गरिमा, स्त्री-पुरुष के समानता का अधिकार आदि। ऐसे अधिकारों को मूलाधिकार, मौलिक अधिकार या मानवीय अधिकार कहते हैं। मानवाधिकार व्यक्ति को मानव होने के नाते तथा जन्म लेते ही प्राप्त हो जाता है। यह वह अधिकार है जो हमारी प्रकृति में अन्तर्निहित है तथा जिसके बिना हम मनुष्य के रूप में जीवित नहीं रह सकते हैं। मानव अधिकार तथा मूल स्वतन्त्रतायें हमें अपने मानवीय गुणों का विकास तथा आध्यात्मिक एवं अन्य आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करने में सहायक होती हैं।
मानव सभ्यता के सम्पूर्ण इतिहास में विभिन्न व्यक्तियों के अधिकारों और शक्तियों के बीच कुछ न कुछ भेद सदैव बना रहा है। शक्ति और अधिकारों के असमान सामाजिक विभाजन को सामाजिक स्तरीकरण कहा जाता है। स्तरीकरण प्रत्येक समाज की अनिवार्य विशेषता होती है। सामाजिक विकास के इतिहास में विभिन्न कालों तथा समाजों में सामाजिक स्तरीकरण का रूप एक-दूसरे से भिन्न देखने को मिलता रहा है। जिन समाजों में आयु, लिंग, प्रजाति अथवा लिंग के आधार पर समाज को विभिन्न स्तरों में विभाजित किया जाता है, वहॉं बन्द स्तरीकरण की प्रधानता होती है। ऐसे स्तरीकरण में व्यक्ति को अपनी सामाजिक प्रस्थिति में परिवर्तन करने की छूट नहीं होती। इसके विपरीत जिन समाजों में सम्पत्ति, व्यवसाय या व्यक्तिगत योग्यता के आधार पर सामाजिक स्तरीकरण विकसित होता है, उसे हम खुला हुआ स्तरीकरण कहते हैं। ऐसे स्तरीकरण में व्यक्तियों की योग्यता या आर्थिक शक्ति में परिवर्तन होने से उनकी सामाजिक-आर्थिक प्रस्थिति में परिवर्तन हो जाता है।
बॉटोमोर ने मानव इतिहास मे प्रचलित सामाजिक स्तरीकरण के चार प्रमुख प्रकारों- दास-प्रथा, जागीर प्रथा, जाति प्रथा तथा वर्ग-व्यवस्था का उल्लेख किया है। इसके अतिरिक्त वर्तमान समाजों में स्तरीकरण का एक अन्य रूप भी विद्यमान है जिसे शक्ति-व्यवस्था के रूप में देखा जा सकता है।
दास-प्रथा सामाजिक स्तरीकरण का सबसे प्रारम्भिक रूप था, जो प्राचीन रोम, यूनान तथा दक्षिण अमेरिका के अनेक भागों में शुरू से विद्यमान रही है। जिस मालिक के पास जितने अधिक दास होते थे, उनकी प्रस्थिति उतनी ही उच्च होती थी। दासों के साथ मालिकों द्वारा पशुता का व्यवहार किया जाता था। यह असमानता के चरम रूप का प्रतिनिधित्व करती है। मध्यकालीन यूरोप में सामाजिक स्तरीकरण का रूप जागीरदारी व्यवस्था के रूप में था। ये जागीरें प्रथा और कानून द्वारा मान्य थी। इसमें तीन वर्ग- पादरी/पुरोहित (उच्च), सामन्त/कुलीन (मध्यम), तथा जनसाधारण (निम्न) होते थे, जिनके कार्य क्रमशः पूजा, लोगों के हितों को देखना और भोजन की व्यवस्था था। जागीरों के मालिक सामन्त (कृषि भूमि के स्वामी) थे। जाति व्यवस्था सामाजिक स्तरीकरण का एक बन्द स्वरूप है, जबकि वर्ग व्यवस्था खुला एवं सार्वभौमिक स्वरूप। शक्ति व्यवस्था वर्तमान युग की विशेषता है, जिसमें राजनैतिक अधिकारों का महत्व बढ़ा है। शक्ति का अभिप्राय राजनैतिक शक्ति से है और राजनैतिक शक्ति का सम्बन्ध व्यक्ति के नेतृत्व, भूस्वामित्व, समर्थकों की संख्या तथा राजनैतिक प्रभाव से है।
उपर्युक्त सभी व्यवस्थाओं में मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन हुआ है। हमारे पूर्वज (भारतीय ऋषि और मनीषी) बहुत ही दूरदर्शी थे, इसलिए उन्होंने उपर्युक्त सभी से हटकर एक अलग व्यवस्था अर्थात् वर्ण व्यवस्था का निर्माण किया, जिसमें व्यक्ति के मानवाधिकारों के उल्लंघन की गुन्जाइश तनिक भी न थी। वर्ण व्यवस्था में व्यक्ति की प्रस्थिति/वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) का निर्धारण उसकी योग्यता (गुण) के आधार पर होता था।
भारतीय ऋषियों और मनीषियों द्वारा निर्मित वर्ण व्यवस्था भी समय के प्रभाव से न बच सकी और दूषित होकर जाति व्यवस्था के रूप में परिवर्तित हो गयी। जाति व्यवस्था में व्यक्ति के प्रस्थिति का आधार है- जन्म या वंशानुक्रम। वर्ण व्यवस्था में जिन वर्णों को उच्च स्थान प्राप्त था, उनके द्वारा अपने संतानों के भी उच्चता को बनाये रखने/निश्चित रखने के लिए एक साजिश के तहत जाति व्यवस्था का निर्माण किया गया।
भारत में मध्य-काल/मुगल शासन काल में उच्च जातियों द्वारा निम्न जातियों के ऊपर बहुत ज्यादा अन्याय/शोषण/अमानवीय व्यवहार किया गया। यह अमानवीय व्यवहार ब्रिटिश शासन काल तक विद्यमान रहा, क्योंकि अंग्रेजों ने भारतीयों के सामाजिक जीवन में हस्तक्षेप करना मुनासिब नहीं समझा। ब्रिटिश शासन इस माने में महत्वपूर्ण रहा, क्योंकि इस काल में अनेक समाज-सुधारकों ने अपने आन्दोलनों द्वारा समाज-सुधार का कार्य आरम्भ किया। इनमें राजाराम मोहन राय, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, रानाडे, स्वामी दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानन्द तथा श्रीमती एनी बेसेन्ट आदि प्रमुख हैं।
इस प्रकार स्पष्ट है कि आजादी से पूर्व एक लम्बे समय तक हमारे देश एवं समाज में मानवाधिकारों का हनन हुआ। 15 अगस्त, 1947 को देश आजाद हुआ। देश एवं समाज में पुनः मानवाधिकारों का हनन न हो, इसके लिए भारतीय नीति एवं संविधान निर्माताओं ने संविधान के भाग-तीन में नागरिकों के लिए मौलिक अधिकारों (अनु0 12 से 35 तक) की व्यवस्था की है। ये मौलिक अधिकार हमें राज्य के विरुद्ध प्राप्त हैं। ये इतने महत्वपूर्ण है कि कोई भी भारतीय नागरिक इनके हनन की दशा में संविधान के अनु0 226 के तहत सीधे उच्च न्यायालय तथा अनु0 32 के अन्तर्गत उच्चतम न्यायालय में जा सकता है। इतना ही नहीं भारतीय संविधान के भाग-चार (अनु0 36-51 तक) में राज्य के लिए नीति-निर्देशक तत्वों की व्यवस्था की गयी है। उच्चतम न्यायालय ने केशवानन्द भारती बनाम भारत संघ (1973), मेनका गॉंधी बनाम भारत संघ (1978) तथा शाहबानो प्रकरण (1985) के वाद में मानवाधिकारों के संरक्षण पर महत्वपूर्ण निर्णय दिया है। सर्वोच्च न्यायालय ने यह व्यवस्था की है कि कोई भी व्यक्ति (भारतीय नागरिक) 50 पैसे के पोस्ट कार्ड पर उसको पत्र लिखकर अपने मूलाधिकारों की रक्षा करवा सकता है। सन् 2006 में सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय पुलिस के अपर्याप्त मानवाधिकारों के प्रतिक्रिया स्परूप पुलिस सुधार के आदेश जारी किये।
स्वतन्त्रता के बाद भी भारत में मानवाधिकारों का उल्लंघन हुआ। इस संदर्भ में 1975-77 में आपात-काल की स्थिति, 1984 में ऑपरेशन ब्लू स्टार और सिक्ख विरोधी दंगे, 1989 में कश्मीरी बगावत (जिसने कश्मीरी पण्डितों का नस्ली आधार पर सफाया किया, हिन्दू मन्दिरों को नष्ट-भ्रष्ट किया, हिन्दुओं और सिक्खों की हत्या की, विदेशी पर्यटकों एवं सरकारी कार्यकर्ताओं का अपहरण किया।), 1992 में हिन्दू-जनसमूह द्वारा विबादित ढांचा ध्वस्त करना और परिणामस्वरूप साम्प्रदायिक दंगे, 2002 में गुजरात में हिंसा तथा सितम्बर-अक्टूबर, 2013 में मुजफ्फरनगर (उ0 प्र0) में हुई साम्प्रदायिक हिंसा आदि घटनाएं प्रमुख हैं। भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में प्रथम एवं द्वितीय विश्वयुद्ध और विभिन्न कालो में मानवाधिकारों का घोर हनन हुआ है। अतः इसके संरक्षण के लिए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी प्राविधान किया गया है। संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अन्तर्गत मानव-अधिकार को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। चार्टर की प्रस्तावना में मानव के मौलिक अधिकारों के प्रति विश्वास प्रकट किया गया है। चार्टर के अनु0 1(13) के अनुसार, संयुक्त राष्ट्र संघ का यह महत्वपूर्ण उद्देश्य है कि वह मानव-अधिकारों तथा मौलिक स्वतन्त्रता को बिना जाति, भाषा, लिंग, धर्म आदि के भेदभाव के प्रोत्साहन प्रदान करे। अनु0 13(ख) के अनुसार, महासभा को यह अधिकार प्राप्त है कि वह मानव अधिकार तथा मौलिक स्वतन्त्रता के लिए अध्ययन कराये तथा अपने सुझाव प्रस्तुत करे। अनु0 55 में प्रावधान है कि स्थायित्व तथा भलाई की दशायें उत्पन्न करने हेतु संयुक्त राष्ट्र का कर्तव्य है कि वह जाति, भाषा, लिंग अथवा धर्म के भेदभाव के बिना मानवीय अधिकारों तथा मौलिक स्वतन्त्रताओं के सार्वभौमिक आदर तथा उनके पालन को प्रोत्साहित करे। अनु0 56 में संयुक्त राष्ट्र के सदस्यों ने संकल्प लिया है कि वे अनु0 55 में वर्णित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए संस्था के सहयोग से पृथक तथा संयुक्त कार्यवाही करेंगे। अनु0 68 के अनुसार, आर्थिक तथा सामाजिक परिषद् मानवीय अधिकारों तथा मौलिक स्वतन्त्रताओं को प्रोत्साहित करने के विषय में कमीशन नियुक्त कर सकती है। अनु0 76(ग) के अनुसार, प्रन्यासी प्रणाली का उत्तरदायित्व है कि वह मानवीय अधिकारों तथा मौलिक स्वतन्त्रताओं को प्रन्यासी क्षेत्रों में लागू करवाने का प्रयास करे। लुइस हेकिन्स (‘‘द यू. एन. ऐण्ड ह्यूमन राइट्स’’ इण्टरनेशनल आर्गनाइजेशन, 1965, पृ. 504.) के अनुसार, ‘‘ संयुक्त राष्ट्र की किसी भी कथा में मानवीय अधिकारों का महत्वपूर्ण स्थान होगा।’’ न्यायाधीश लाटर पैट के अनुसार, ‘‘संयुक्त राष्ट्र चार्टर मानवीय अधिकार के मामले में राज्यों पर कुछ उत्तरदायित्व अधिरोपित करता है।’’ प्रो0 जॉन हम्फ्री के अनुसार, ‘‘संयुक्त राष्ट्र संघ ने मानवीय अधिकारों के विषय में कुछ नियम तथा मानदण्ड स्थापित किये हैं और राज्यों का यह उत्तरदायित्व है कि वे इस विषय में सहयोग करें।’’ परन्तु जहॉं तक मानवीय अधिकारों को लागू कराने का प्रश्न है, अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अन्तर्गत ऐसी प्रभावशाली संस्था का अभाव है। प्रो0 ओपेनहाइम के अनुसार, ‘‘मौलिक मानव-अधिकारों को लागू करने के मामले में अन्तर्राष्ट्रीय विधि में अभी बहुत प्रारम्भिक व्यवस्था है।’’ इस विषय में सबसे प्रमुख रुकावट यह है कि संयुक्त राष्ट्र राज्यों के घरेलू मामलांे में हस्तक्षेप नहीं कर सकता है।
संयुक्त राष्ट्र संघ की सामान्य महासभा ने 10 दिसम्बर, 1948 को मानवीय अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा को पारित किया। इसमें कुल 30 अनुच्छेद है, जिसमें मानव-अधिकारों तथा मौलिक स्वतन्त्रताओं के विषय में विस्तार से उल्लेख है। इस घोषणा से राष्ट्रों को प्रेरणा तथा मार्गदर्शन प्राप्त हुआ है और वे अपने संविधान व अधिनियमों द्वारा उक्त घोषणा को क्रियान्वित करने के लिए अग्रसर हुए हैं। इस घोषणा के बाद महासभा ने सभी सदस्य देशों से पुनरावेदन किया कि वे इस घोषणा का प्रचार करें और देशों एवं प्रदेशों की राजनैतिक स्थिति पर आधारित भेदभाव का विचार किये बिना विशेषतः विद्यालयों और अन्य शिक्षण संस्थाओं में इसके प्रचार, प्रदर्शन, पठन और व्याख्या का प्रबन्ध करें।
भारत सरकार ने मानवाधिकार के संरक्षण के लिए आजादी के पूर्व एवं पश्चात में निम्नलिखित अधिनियमों को पारित किया है-
1. सती-प्रथा निरोधक अधि0, 1829.
2. हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधि0, 1856.
3. बाल-विवाह निरोधक अधि0, 1929.
4. हिन्दू स्त्रियों का सम्पत्ति अधिकार अधि0, 1937.
5. आपराधिक जनजाति अधि0, 1952.
6. विशेष विवाह अधि0, 1954.
7. हिन्दू विवाह अधि0, 1955.
8. अस्पृश्यता अपराध अधि0, 1955.
9. सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) अधि0, 1958.
10. दहेज निराधक अधि0, 1961.
11. जम्मू और कश्मीर जन सुरक्षा अधि0, 1978.
12. अनु0 जाति और अनु0 जनजाति (अत्याचार निवारण) अधि0, 1989.
13. पंचायती राज अधि0, 1992.
14. मानवाधिकार संरक्षण अधि0, 1993. (राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की स्थापना)
15. सूचना का अधिकार (मूल अधिकार) अधि0, 2005.
16. राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधि0, 2005.
17. घरेलू हिंसा अधि0, 2005.
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भारत तथा अन्य देशों में मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन हुआ है तथा इसके संरक्षण के लिए राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास भी हुए हैं/हो रहे हैं, किन्तु यह समस्या आज भी विद्यमान है। केवल कानून बना देने से इस समस्या का समाधान सम्भव नहीं है। इस समस्या से निजात पाने के लिए यह आवश्यक है कि हम सभी गीता के उपदेश पर अमल करें अर्थात् ऐसा कोई भी कृत्य दूसरे के लिए न करें जो यदि दूसरा व्यक्ति वही कृत्य हमारे साथ करता है तो उससे हमें कष्ट का अनुभव हो या हमारे प्रतिकूल हो।
संदर्भः-
1. डॉ0 जी0 के0 अग्रवाल, ग्रामीण समाजशास्त्र, एसबीपीडी पब्लिशिंग हाउस आगरा, 2010.
2. टी. बी. बॉटोमोर, इलिएट्स एण्ड सोसाइटी, 1964.
3. टी. बी. बॉटोमोर, दि सोशिलिस्ट इकोनॉमी, 1990.
4. डॉ0 जे0 एन0 पाण्डेय, भारत का संविधान, सेन्ट्रल लॉ एजेन्सी इलाहाबाद, 1994.
5. लुइस हेकिन्स, ‘‘द यू. एन. ऐण्ड ह्यूमन राइट्स’’ इण्टरनेशनल ऑर्गनाइजेशन (1965).
6. एच0 लाटरपैट, इण्टरनेशनल लॉ ऐण्ड ह्यूमन राइट्स.
7. प्रो0 जॉन हम्फ्री, इण्टरनेशनल ऑर्गनाइजेशन, वाल्यूम 24, संख्या 1 (1970).
8. ओपेनहाइम्स, इण्टरनेशनल लॉ.
9. डॉ0 एस0 के0 कपूर, अन्तर्राष्ट्रीय विधि, सेन्ट्रल लॉ एजेन्सी इलाहाबाद, 1994.
10. जे0 जी0 स्टार्क, इन्ट्रोडक्शन टु इन्टरनेशनल लॉ, 1989.
11. www.hi.wikipedia.org/wiki/
12. डॉ0 महेन्द्र कुमार मिश्रा, मानवाधिकार एवं सामाजिक न्याय, एजुकेशनल पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स, लक्ष्मीनगर दिल्ली, 2011.
13. डॉ0 विप्लव, मानवाधिकार के आइने में महिलाएं, विस्टा इण्टरनेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, 2011.
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