Friday, October 4, 2013

भारत में महिला आरक्षण विधेयक एवं ग्रामीण महिलाओं में राजनीतिकजागरूकता

     भारत तथा विश्व के अधिकांश देशों में स्त्रियों की प्रस्थिति विशेषतः राजनीतिक स्थिति को लेकर सिद्धान्त और व्यवहार के बीच एक बड़ा अन्तर देखने को मिलता है। एक ओर इस्लाम के अतिरिक्त सभी धर्म तथा सामाजिक कानून स्त्रियों की प्रतिष्ठा और सम्मान को सबसे अधिक महत्व देते हैं तो दूसरी ओर व्यवहार में अधिकांश समाजों द्वारा स्त्रियों को राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक अधिकारों से वंचित किया जाता रहा है। भारत में हिन्दुओं के वैदिक धर्म में जहॉं स्त्रियों को सम्पत्ति, ज्ञान और शक्ति का प्रतीक मानकर उन्हें लक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा के रूप में मान्यता दी गयी, वहीं स्मृतिकालीन धर्म-शास्त्रों में स्त्रियों को दासी अथवा वस्तु का रूप दे दिया गया जिसके साथ पुरुष किसी भी तरह का मनमाना व्यवहार कर सकते हैं। पुरुष प्रधान सामाजिक व्यवस्था में स्त्रियों को पुरुषों की वासना-पूर्ति का एक साधन मात्र समझा जाता रहा है। यह बात उन सभी जातियों और वर्गों के लिए सच है कि जिनकी प्रणाली सामन्तवादी विचारों से प्रभावित है। हमारा सामाजिक जीवन मुख्य रूप से चार क्रियाओं से सम्बन्धित है- उत्पादन की क्रिया, प्रजनन, परिवार का प्रबन्ध तथा बच्चों का समाजीकरण। व्यावहारिक रूप से इन सभी क्रियाओं पर पुरुषों का ही एकाधिकार है। अधिकांश व्यक्ति स्त्रियों द्वारा नौकरी करने, उच्च शिक्षा ग्रहण करने अथवा परिवार के प्रबन्ध में हस्तक्षेप करने को न केवल संदेह की दृष्टि से देखते हैं बल्कि इसे अपने अहं के विरुद्ध भी मानते हैं। इक्कीसवीं सदी के तथाकथित समतावादी समाज में भी महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों में अधिक कमी नहीं हुई है, यद्यपि इन अत्याचारों के रूप में परिवर्तन अवश्य हो गया है। अनेक महिला संगठनों द्वारा चलाए जाने वाले आन्दोलन भी उनकी प्रस्थिति में अधिक परिवर्तन नहीं ला सके।
     भारत में आज महिलाओं का राजनैतिक सक्तिकरण एक महत्वपूर्ण मुद्दा बन गया है। भारत एक प्रजातान्त्रिक देश है और प्रजातन्त्र में जन-जन की भागीदारी आवश्यक है। यदि इस तर्क को स्वीकार किया जाय कि भारत जैसे देश में जहां महिलाओं की संख्या लगभग 49 प्रतित् है उस अनुपात में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बहुत कम है, ऐसी परिस्थिति में महिलाओं के राजनीतिक जागरूकता के प्रश्न महत्वपूर्ण हो जाते हैं। राजनैतिक सक्तिकरण से अभिप्राय है राजनैतिक निर्णय लेने की संस्थाओं में महिलाओं का उचित प्रतिनिधित्व। यह माना जाता है कि महिलाओं का बहुत बड़ा वर्ग सामाजिक भेद-भाव का शिकार है और उनको निर्णय लेने का मौका नहीं मिलता है, राजनैतिक सक्तिकरण भागीदारी की इस आवश्यकता को भी बढ़ाता है। इस बात से यह स्पष्ट होता है कि लोकतान्त्रिक व्यवस्था में राजनैतिक भागीदारी उन लोगों की सुनिश्चित होनी चाहिए जो अभी तक इससे वंचित रहे हैं। महिलाओं के राजनैतिक जागरूकता का अर्थ है कि इन्हें हर स्तर की विधायी संस्थाओं में प्रतिनिधित्व मिले इस बात का उन्हें सम्यक् ज्ञान हो और उसमें वे निःसंकोच अपनी सहभागिता सुनिश्चित कर सकें। यह इतिहास रहा है कि राजनैतिक दलों ने कभी भी स्वेच्छा से महिलाओं को प्रतिनिधित्व नहीं दिया जिसके कारण भारतीय संविधान में 73वें संशोधन, 1992 के माध्यम से ग्रामीण पंचायतों के स्तर पर महिलाओं के प्रतिनिधित्व को सुनिष्चित किया गया। संशोधन की धारा 243 डी (2) इस बात का निर्दे देती है कि सम्पूर्ण पदों के एक तिहाई पद महिलाओं के लिए सुरक्षित रहेंगे। धारा 243 डी (5) एवं (6) द्वारा भी पंचायती राज्य के अन्य पदों पर भी इसी प्रकार के आरक्षण का निर्देश दिया गया है।
    भारत सरकार ने लिंग आधारित विभिन्नताओं को दूर करने की यात्रा एक तरह से सन् 1953 में महिला कल्याण की नीति अपनाकर शुरू की थी बाद में यह यात्रा महिला विकास तक पहुंची और अब महिला सक्तिकरण का नारा सामने आया है। महिला सक्तिकरण की राष्ट्रीय नीति का उद्देश्य महिलाओं की प्रगति एवं विकास को सुनिश्चित करना तथा आत्म शक्ति को बढ़ाना है।
     महिलाओं को राजनीतिक प्रक्रिया में सशक्त भागीदारी देने के लिए विधायिका में आरक्षण के द्वारा इनके लिए स्थान सुनिश्चित करना आवश्यक है इसी विचार को ध्यान में रखकर भारत सरकार ने संसद में बार-बार विधेयक प्रस्तुत करके महिलाओं को आरक्षण प्रदान करने का प्रयास किया है। उल्लेखनीय है कि महिला आरक्षण विधेयक को 1996, 1998, व 1999 में भी लोक सभा में पेश किया गया था किन्तु तीनों बार पारित होने से पूर्व लोक सभा का कार्यकाल समाप्त हो जाने के कारण यह निरस्त हो गया था। विधेयक को 12 वर्ष पूर्व तत्कालीन प्रधानमन्त्री एच0 डी0 देवगौड़ा की सरकार ने 81वें संविधान संशोधन विधेयक के रूप में 12 सितम्बर, 1996 को लोक सभा में पेश किया था। यह विधेयक संयुक्त संसदीय समिति को भेज दिया गया था किन्तु 11वीं लोक सभा भंग हो जाने की वजह से यह निरस्त हो गया। बाद में दिसम्बर, 1998 में तत्कालीन अटल बिहारी बाजपेयी सरकार ने लोक सभा में 84वां संविधान संशोधन विधेयक पेशकर महिला आरक्षण की दिशा में एक और प्रयास किया। 12वीं लोक सभा भंग हो जाने के कारण यह विधेयक फिर निरस्त हो गया। लोक सभा में 23 दिसम्बर, 1999 को यह विधेयक पेश करने की एक और कोशिश हुई लेकिन राजनीतिक सहमति के अभाव में यह विधेयक आगे नहीं बढ़ पाया।
     सरकार ने बहुप्रतीक्षित और विवादित महिला आरक्षण विधेयक (108वां संविधान संशोधन विधेयक) मई, 2008 में संसद में प्रस्तुत किया। यूपीए सरकार के न्यूनतम साझा कार्यक्रम के एक बड़े वायदे को पूरा करते हुए तत्कालीन विधि मन्त्री हंसराज भारद्वाज लोक सभा एवं राज्य विधान सभाओं में महिलाओं के लिए एक तिहायी सीटों के आरक्षण के प्रावधान वाले इस विधेयक को 6 मई, 2008 को राज्य सभा में प्रस्तुत किया। सपा व जनता दल (यू) के सांसदो के भारी विरोध व हाथापायी के बीच अपने दल की महिला सांसदों के सुरक्षा घेरे में विधि मन्त्री इस विवादास्पद विधेयक को प्रस्तुत करने में सफल रहे। विधेयक पेश होने के साथ ही पीठासीन अधिकारी पी0 जे0 कुरियन ने सदन को अनिश्चित काल के लिए स्थगित करने की घोषणा कर दी। विधेयक को संसदीय समिति को सन्दर्भित किया गया है।
     विधेयक के उद्देश्यों और कारणों सम्बन्धी वक्तव्यों में कहा गया है कि सरकार ने इस सम्बन्ध में व्यक्त की गयी आम सहमति को ध्यान में रखते हुए राज्य सभा और राज्य विधान परिषदों सहित सभी विधायी निकायों में महिलाओं के लिए आरक्षण का उपबन्ध करने के वास्ते इससे पहले पेश किये गये विधेयक के आधार पर एक विधेयक पुनः पेश करने का निश्चय किया है।
     विधेयक में कहा गया है कि 108वें सविधान संशोधन अधिनियम 2008 के उपबन्ध आरम्भ से 15 वर्ष की अवधि की समाप्ति पर प्रभावी नहीं रहेंगे। इस विधेयक के जरिये संविधान के अनुच्छेद 239क, 331, और 333 में संशोधन किया जायेगा। इसी तरह अनुच्छेद 330 के पश्चात एक नया अनुच्छेद 330क, 332 के बाद 332क और 334 के बाद 334क जोड़ कर महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित करने की व्यवस्था की गयी है। 14 साल के लम्बे इन्तजार के बाद 9 मार्च, 2010 को महिलाओं को लोकसभा और विधानसभाओं में आरक्षण देनें के प्रावधान वाला (108 वॉं संविधान संशोधन) विधेयक राज्य सभा में पारित हो गया। लोक सभा में पास होना अभी बाकी है।
     उल्लेखनीय है कि इससे पूर्व संसद द्वारा 73वां और 74वां संविधान संशोधन अधिनियम 1993 पारित किये गये। इस संशोधन द्वारा ग्राम पंचायतों तथा नगर पालिकाओं में क्रमश: अनुच्छेद 343घ तथा अनुच्छेद 343न द्वारा आरक्षित एवं अनारक्षित वर्ग की महिलाओं हेतु 33 प्रतिशत् आरक्षण की व्यवस्था की गयी है इस व्यवस्था के क्रियान्वयन से देश के सभी प्रान्तों में ग्रामीण और शहरी पंचायतों के सभी स्तरों पर कई महिलायें जन प्रतिनिधियों के रूप में अहम भूमिका का निर्वाह कर रही हैं।
     राजधानी दिल्ली में पंचायती राज व्यवस्था के 15 वर्षों की उपलब्धियों तथा स्थानीय  लोक तन्त्र को अधिक सशक्त बनाने के मुद्दे पर आयोजित राष्ट्रीय सम्मेलन में प्रधान मन्त्री डॉ0 मनमोहन सिंह ने कहा है कि पंचायती राज की सबसे बड़ी सफलता यह है कि इसने महिलाओं का राजनीतिक एवं सामाजिक सशक्तिकरण किया है। सम्पूर्ण निर्वाचित पंचायत सदस्यों में 9 लाख 75 हजार महिला प्रतिनिधि हैं। एक तथ्य यह भी है कि यह संख्या विश्व में कुल निवार्चित महिला प्रतिनिधियों से भी ज्यादा है। बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेष, छत्तीसगढ़, हिमांचल प्रदेश और उत्तराखण्ड में 50 प्रतिशत् आरक्षण दिये गये हैं। इन राज्यों में महिलाओं ने कई कीर्तिमान स्थापित किये हैं।
     पंचायतों में आरक्षण के फलस्वरूप जो महिलायें चुनकर आई हैं वे इस सत्य को उजागर कर रही हैं कि महिलायें निष्क्रिय और निस्सहाय नहीं हैं। आरक्षित सीटों के अलावा अन्य सीटों पर चुना जाना इसका संकेत है। सवर्ण जाति के साथ-साथ अनु0जाति एवं अनु0जनजाति की महिलायें भी अब पंचायत में प्रतिनिधित्व कर सकती हैं।
     भारत की पंचायतों में महिलाओं को 33 प्रतिशत् आरक्षण मिल तो गया है लेकिन विधान सभा और संसद के गलियारों में महिलाओं की अपेक्षित भागीदारी सुनिश्चित करने में राष्ट्रीय राजनीतिक दल ईमानदारी नहीं दिखा रहे हैं। हमारे यहां संसद में महिलाओं का प्रतिशत् पाकिस्तान, नेपाल और ईराक से भी कम है। अन्य देशों की तुलना की जाय तो इस मामले में रवाण्डा सबसे ऊपरी पायदान पर है। यहां लोवर हाउस में 56.30 प्रतिशत् महिलायें हैं।
     आजादी के 60 साल बाद भी लोक सभा के आधी आबादी का प्रतिनिधित्व करने के लिए औसतन लगभग 50 महिलायें ही पहॅंची हैं। ये शर्मनाक आंकड़े तब और अखरते हैं जब हम याद करते हैं कि अगर पिछले आम चुनाव से पहले उक्त विधेयक पारित कर दिया गया होता तो आज लोग सभा में कम से कम 179 महिलायें होतीं।
     विधायिका में महिला आरक्षण के मामले पर सभी गतिरोधों को समाप्त करने के लिए एक नया प्रस्ताव सरकार के पास विचाराधीन है। इस प्रस्ताव के अन्तर्गत महिलाओं को समुचित प्रतिनिधित्व देने के लिए संसदीय एवं विधान सभायी सीटों की वर्तमान संख्या में एक तिहायी की वृद्धि कर उसे महिलाओं के लिए आरक्षित करने की योजना है।
     लोक सभा में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को वर्षगत क्रम में निम्न रूप से सारणीबद्ध किया जा रहा है-
            वर्ष                        महिला सदस्य संख्या
           1952                            22
           1957                            27
           1962                            34
           1967                            31
           1971                            22
           1977                            19
           1980                            28
           1984                            44
           1989                            27
           1991                            39
           1996                            39
           1998                            43
           1999                            49
           2004                            44
           2009                            59
           2014                            61
     देश के संसदीय इतिहास में पहली बार इतनी अधिक संख्या में महिलायें पॅंहुची हैं हालांकि महिलाओं की संख्या को लोक सभा में 10 फ़ीसदी तक पहॅंचने में 60 वर्ष से ज्यादा का समय लग गया। महिला आरक्षण पर उम्मीद की किरण दो चेहरों पर आकर टिकी है- एक ख़ुद यूपीए की अध्यक्षा सोनिया गॉंधी और दूसरी तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी। यूपीए की पहली बैठक में ही ममता बनर्जी ने महिलाओं को संसद और विधान सभाओं में 33 प्रतिशत् आरक्षण को जल्द से जल्द लागू करवाने की मांग कर वर्षों पुरानी महिलाओं की इस इच्छा को एक नयी गम्भीरता दे दी है। वैसे भी कांग्रेस ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में साफ़-साफ़ लिखा है कि कांग्रेस इस बात का भरोसा देती है कि अगर 15वीं लोक सभा में महिला आरक्षण बिल पास हो गया तो 16वीं लोक सभा के चुनाव का आधार यही विधेयक हो सकता है। जिसके बाद सदन में 33 प्रतिशत् महिलायें चुनकर आ सकती हैं
     प्रधान मन्त्री डॉ0 मनमोहन सिंह की पिछली सरकार में 10 महिलायें मन्त्री थीं जबकि मौजूदा सरकार में केवल 8 महिलाओं को ही शामिल किया गया है। जबकि 79 सदस्यों की इस मन्त्रिपरिषद् में महिलाओं की संख्या 26 होनी चाहिए।
     नारी सशक्तिकरण की वास्तविक उपलब्धि यह है कि वह स्वयं पर विश्वास रखकर अपने नारीत्व पर गर्व करे। अपनी शर्तों पर ज़िन्दगी जीने का उसमें साहस हो। यह काम महिला आरक्षण बिल बख़ूबी निभा सकता है। पंचायती राज व्यवस्था में महिलाओं ने अनेक उदाहरण प्रस्तुत किये हैं जैसे- आन्ध्र प्रदेश के छोटे से गांव कलवा का सरपंच फ़ातिमा बी जिसे संयुक्त राष्ट्र संघ के पूर्व महासचिव कोफी अन्नान ने पंचायत में महत्वपूर्ण काम करने के लिए स्वयं सम्मानित किया। अतः पंचायत से लेकर संसद तक सभी स्तरों पर निर्णय प्रक्रिया में समान अधिकारो और स्थान के लिए महिलाओं की सशक्तिकरण का प्रश्न राजनीतिक रूप से हल करना होगा। सभी राजनीतिक दलों के नेता को चाहिए कि आपस के मतभेदों को भुलाकर तथा पुरुष मानसिकता के पूर्वाग्रह से निकल कर इस बिल पर आम सहमति बनायें और महिला सशक्तिकरण की प्रक्रिया को तीव्रता दें।
     उपर्युक्त विश्लेषणों से स्पष्ट है कि महिला विकास का सवाल मुख्यतः एक राजनीतिक सवाल है और जब तक इसे राजनीतिक सवाल के रूप में नहीं देखा जायेगा और देश की राजनीति एवं सत्ता में महिलाओं को समान भागीदारी नहीं दी जायेगी तब तक महिलाओं की प्रगति अधूरी ही रहेगी। महिला आरक्षण एक अस्थायी आन्तरिक व्यवस्था ही हो सकती है यह सच्ची लोकतान्त्रिक प्रक्रिया और आम महिलाओं की मुख्याधारा में भागीदारी का विकल्प नहीं हो सकता परन्तु उस दिशा में एक सही कदम है। अन्ततः महिलाओं में सकारात्मक चेतना तथा समान अवसर सुविधायें दिया जाना चाहिए फिर भी उन्हें अपने पैरों पर ख़ुद खड़ा होना होगा और जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में अपनी क्षमता, योग्यता, विवेक तथा परिश्रम से आगे बढ़ना होगा।

संदर्भः-
1.    सामान्य ज्ञान दर्पण, उपकार प्रकाशन, आगरा-2, नवम्बर-2009.
2.    अमर उजाला समाचार पत्र, लखनऊ संस्करण, 10 मार्च, 2010.
3.    राम आहूजा, भारतीय सामाजिक व्यवस्था, रावत पब्लिकेशन्स, जयपुर, 1993.
4.    डॉ0 जी0 के0 अग्रवाल, समाजशास्त्र, एसबीपीडी पब्लिशिंग हाउस, आगरा, 2012.
5.    ज्ञान चन्द्र यादव, ज्ञान भारत, ज्ञान पब्लिशिंग हाउस दिल्ली-54, 2010.
6.    आशारानी व्होरा, भारतीय नारी दशा और दिशा, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, 1982.
7.    रेखा मिश्रा, वुमेन इन मुगल इण्डिया, मुंशीराम मनोहर लाल, देलही, 1967.
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9.    अल्तेकर, ‘द पोजीशन ऑफ वुमेन इन हिन्दू सिविलाइजेशन’, बनारसीदास, देलही, 1962.
10.  एम0 एम0 लवानिया एवं अजय राठौर, भारतीय समाज, रिसर्च पब्लिकेशन्स, जयपुर, 1999.
11.  प्रमिला कपूर, मैरिज एण्ड वर्किंग वुमेन, विकास, दिल्ली, 1970.
12.  डॉ0 एम0 एन0 श्रीनिवास, आधुनिक भारत में सामाजिक परिवर्तन, 1964.

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