Friday, October 4, 2013

पंचायती राज व्यवस्था का ग्रामीण जीवन पर प्रभाव

     भारतीय संविधान के अनुच्छेद-40 (भाग-4, नीति-निर्देशक तत्व) में राज्यों को पंचायत गठन का निर्देश दिया गया है। नीति-निर्देशक तत्वों में यह घोषणा की गयी है कि प्रत्येक राज्य पंचायतों के पुनर्गठन के लिए प्रयत्न करेगा तथा उन्हें ऐसी शक्तियां और अधिकार प्रदान करेगा जिससे पंचायतें स्वायत्त शासन की इकाई के रूप में कार्य कर सकें। पंचायती राज को लेकर बलवन्त राय मेहता समिति (1957), अशोक मेहता समिति (1977), डॉ0 जी0 वी0 के0 राव समिति (1985) और एल0 एम0 सिंघवी समिति (1986) ने महत्वपूर्ण सिफारिशें की थी। 1993 में संविधान में 73 वें और 74 वें संविधान संशोधन के तहत पंचायत राज व्यवस्था को संवैधानिक मान्यता/दर्जा प्रदान की गयी। इस व्यवस्था के अन्तर्गत महिलाओं को 33 प्रतिशत भागीदारी का सपना साकार हुआ। पंचायती राज मंत्रालय 27 मई, 2004 को अस्तित्व में आया। इस मंत्रालय का गठन 73 वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 द्वारा जोड़े गये संविधान के खण्ड-9 के क्रियान्वयन की निगरानी के लिए किया गया।1
     उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री स्वर्गीय पंडित जवाहर लाल नेहरू ने 2 अक्टूबर, 1959 को राजस्थान के नागौर में ही देश में पंचायती राज का उद्घाटन किया गया।
     वर्तमान में सम्पूर्ण भारत में 2,27,697 ग्राम पंचायतें, 5,913 पंचायत समितियां तथा 475 जिला परिषदें कार्यरत हैं। इस समय देश में कुल पंचायतों में निर्वाचित प्रतिनिधियों की संख्या लगभग 28.10 लाख है, जिसमें 36.87 प्रतिशत महिलाएं हैं।2
     लोकतान्त्रिक विकेन्द्रीकरण के एक साधन के रूप में पंचायत राज व्यवस्था ने भारत के ग्रामीण जीवन को व्यापक रूप से प्रभावित किया है। पंचायत राज व्यवस्था आज देश के सभी भागों में कार्यान्वित हो चुकी है तथा इसकी विभिन्न इकाइयों द्वारा एक समन्वित विकास कार्यक्रम को व्यावहारिक रूप दिया जा रहा है। इस व्यवस्था के अनुसार प्रजातान्त्रिक विकेन्द्रीकरण से सम्बन्धित सभी कार्यक्रमों को ग्रामीण स्तर पर लागू करने के लिए पंचायत, सहकारिता तथा विद्यालय तीन महत्वपूर्ण संस्थायें  हैं। एक विशेष क्षेत्र में विकास कार्यक्रमों को लागू करने का दायित्व निर्वाचित सदस्यों वाली ग्राम पंचायत का है जबकि आर्थिक विकास का कार्य सहकारी समितियों के माध्यम से पूरा किया जाता है। ग्रामीण विद्यालय एक ऐसा सामाजिक केन्द्र बन गया है जिसके द्वारा ग्रामीणों को शिक्षात्मक, मनोरंजनात्मक तथा सांस्कृतिक आवश्कताओं को पूरा किया जाता है। विभिन्न सहयोगी संगठनों, जैसे- महिला एवं युवा मण्डलों, कृषक तथा कारीगर समितियों आदि को अपने-अपने क्षेत्र की पंचायतों के विकास कार्यक्रमों से इस प्रकार मिला दिया गया है जिससे पंचायत राज व्यवस्था अधिक से अधिक प्रभावपूर्ण ढंग से अपना कार्य कर सके। इन सम्पूर्ण प्रयत्नों के फलस्वरूप आज पंचायत राज व्यवस्था ने ग्रामीण जीवन को व्यापक रूप से प्रभावित किया है। विभिन्न अध्ययनों के आधार पर पंचायत राज व्यवस्था के प्रमुख प्रभावों को निम्नांकित ग्रामीण क्षेत्रों में स्पष्ट किया जा सकता है-
  1. पंचायत राज व्यवस्था ने परम्परागत शक्ति-संरचना में परिवर्तन उत्पन्न करके जातिगत निर्योग्यताओं तथा जातिगत निषेधों के प्रभाव को कम कर दिया है। एवेलेन वुड ने यह स्पष्ट किया है कि पंचायत राज व्यवस्था के फलस्वरूप ग्रामीणों को मतदान का अधिकार मिला जिससे जाति-संरचना के केवल ध्रुवीकरण की प्रक्रिया ही आरम्भ नहीं हुयी बल्कि विभिन्न जातियों को एक दूसरे के निकट सम्पर्क में आने के अवसर भी प्राप्त हुए हैं।3 डॉ0 एम0 एन0 श्रीनिवास के अनुसार पंचायती राज की स्थापना से निम्न जातियॉं विशेषकर हरिजनों में आत्म सम्मान की भावना बढ़ने के साथ ही शक्ति की एक नवीन अनुभूति का संचार हुआ है।4
  2.  ग्रामों की राजनीतिक संरचना भी आज नवीन परिवेश ग्रहण कर रही है। ग्रामों की शक्ति-संरचना अब आनुबंशिक मुखिया अथवा वृद्ध व्यक्तियों के हाथों में केन्द्रित नहीं है बल्कि इसमें जन-साधारण की सहभागिता बढ़ती जा रही है। ग्रामीण नेतृत्व अब मुख्य रूप से उन व्यक्तियों के हाथों में केन्द्रित होने लगा है जो मध्यम वर्ग के सदस्य हैं अथवा जिनके परिवार का परम्परागत शक्ति-संरचना में कोई प्रत्यक्ष योगदान नहीं था। जी0 आर0 रेड्डी ने अपने अध्ययन के द्वारा यह ज्ञात किया कि पंचायत राज की त्रि-स्तरीय व्यवस्था में जिला परिषदों और पंचायत समितियों के विभिन्न पदों पर आज वे ही व्यक्ति आसीन हैं जो आर्थिक रूप से सम्पन्न हैं परन्तु ग्रामीण स्तर पर अब 60 प्रतिशत से 68 प्रतिशत पिछड़ी और अनुसूचित जातियों के सदस्यों का प्रतिनिधित्व हो चुका है तथा इनमें से 72 प्रतिशत व्यक्ति ऐसे हैं जिनकी वार्षिक आय 2500 रूपये से भी कम है।5 ग्रामीण नेतृत्व में युवा सदस्यों का प्रभाव बढ़ा है तथा राजनीतिक आकांक्षाओं ने जाति, धर्म और नातेदारी के परम्परागत आधारों को दुर्बल बना दिया है।6 पर्वथम्मा ने मैसूर के गॉंवों का अध्ययन करके इसी प्रकार के निष्कर्ष प्रस्तुत किये हैं।7
  3. पंचायती राज व्यवस्था से सम्बद्ध विभिन्न विकास कार्यक्रमों के फलस्वरूप ग्रामीणों के जीवन-स्तर तथा प्रति व्यक्ति आय में भी पर्याप्त सुधार हुआ है। आर्थिक सुधार के साथ ग्रामीण जीवन में व्याप्त अन्धविश्वासों तथा कुरीतियों का प्रभाव पहले की तुलना में बहुत कम हो चुका है। आज ग्रामीण समुदाय में पहले की अपेक्षा हीनता और निराशा की भावना स्पष्ट रूप से नहीं दिखायी देती।
  4. पंचायती राज के प्रभाव से आज ग्रामीण गतिशीलता में भी वृद्धि हुई है। यह गतिशीलता सामाजिक तथा आर्थिक सभी क्षेत्रों में विद्यमान है।
  5. गॉंव में शिक्षा का प्रसार होने तथा स्वास्थ्य सुविधाओं में वृद्धि होने से संक्रामक रोगों की समस्या पहले से काफी कम हो गयी है। पीने के पानी की व्यवस्था, स्वच्छता के नियमों के प्रति जागरूकता तथा स्वास्थ्यकारी आवास व्यवस्था के फलस्वरूप ग्रामीण स्वास्थ्य के स्तर में भी सुधार हुआ है।
  6. न्याय के क्षेत्र में भी पंचायत राज व्यवस्था से सुधार हुआ है क्योंकि न्याय पंचायतें सस्ता और शीघ्र न्याय देने का प्रयत्न करती हैं।
  7. पंचायती राज व्यवस्था का ग्रामीण जीवन पर एक स्पष्ट प्रभाव जाति पंचायतों के प्रभाव में होने वाले ह्रास के रूप में देखने को मिलता है। पंचायती राज व्यवस्था के कारण अब जाति पंचायतों का प्रभाव इतना कम हो गया है कि अधिकांश गॉंवों में जाति पंचायतों का अस्तित्व ही देखने को नहीं मिलता। फलस्वरूप ग्रामीणों का जीवन अधिक स्वतन्त्र, उदार और समतावादी बन गया है।
  8. अनेक लाभकारी प्रभावों के बाद भी पंचायती राज व्यवस्था ने ग्रामीण जीवन में कुछ विघटनकारी प्रवृत्तियों को भी जन्म दिया है जिनमें गुटबन्दी, बढ़ते हुए संघर्ष और व्यक्तिवादिता आदि प्रमुख समस्यायें हैं। पी0 एन0 रस्तोगी ने अपने अध्ययन के आधार पर यह स्पष्ट किया कि पंचायत राज व्यवस्था के फलस्वरूप ही ग्रामीण क्षेत्रों में पारस्परिक सहयोग के स्थान पर गुटवाद को प्रोत्साहन मिला है।8

     उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि पंचायती राज व्यवस्था ने ग्रामीण क्षेत्रों में अनेक स्वस्थ परिवर्तन उत्पन्न करने के साथ ही कुछ ऐसी समस्याओं को भी जन्म दिया है, जो ग्रामीण जीवन के विघटन के लिए उत्तरदायी हैं। आज गॉंवों में भी नगरों के समान व्यक्तिवादिता तथा मूल्यों के ह्रास की समस्याएं उत्पन्न हुई हैं। कुछ लोगों का मत है कि ये दुष्परिणाम पंचायती राज व्यवस्था के न होकर कार्यक्रमों के दोषपूर्ण क्रियान्वयन के हैं। वास्तविकता यह है कि पंचायती राज व्यवस्था के दुष्परिणाम इससे प्राप्त लाभों की तुलना में बहुत कम हैं। किसी भी समाज अथवा समुदाय की प्रगति का वास्तविक आधार उसके सदस्यों की सामाजिक और आर्थिक जागरूकता है। पंचायत राज व्यवस्था ने ऐसी जागरूकता उत्पन्न करने में निश्चय ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यदि कुछ क्षेत्रों में पंचायती राज व्यवस्था अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने में असफल रही है तो इसका कारण स्वयं यह व्यवस्था न होकर ग्रामीण पर्यावरण का परम्परागत असन्तुलन तथा सरकार की दोषपूर्ण नीतियॉं हैं। अतः आज गॉंवों में व्याप्त जातिवाद, दलबन्दी की भावना, अशिक्षा, उचित नेतृत्व का अभाव, पंचायतों के कार्यों की लम्बी सूची, पंचायतों की निम्न आर्थिक स्थिति तथा चुनावों की दोषपूर्ण प्रक्रिया इत्यादि वे महत्वपूर्ण कारण हैं जिनके फलस्वरूप पंचायती राज व्यवस्था अधिक सफल नहीं हो सकी है।
संदर्भः-
1.    डॉ0 जी0 के0 अग्रवाल, ग्रामीण समाजशास्त्र, एसबीपीडी पब्लिशिंग हाउस आगरा, 2010.
2.    ज्ञान चन्द्र यादव, ज्ञान भारत-2010, ज्ञान पब्लिशिंग हाउस दिल्ली-54, पृष्ठ-152.
3.    एवेलेन वुड, ‘कास्ट्स लेटेस्ट इमेज’, इकोनॉमिक वीकली, 1964, 16(4) पृष्ठ-951-52.
4.    डॉ0 एम0 एन0 श्रीनिवास, आधुनिक भारत में सामाजिक परिवर्तन, 1964.
5.    जी राम रेड्डी, ‘सोशल कम्पोजीसन ऑफ पंचायत राज: बैकग्राउण्ड ऑफ पोलीटिकल एक्जक्यूटिब्स इन आन्ध्रा’, इकोनॉमिक एण्ड पोलीटिकल वीकली, वालूम III, No. 50, 23 दिसम्बर, 1967, पृष्ठ-2211.
6.    जी राम रेड्डी, पंचायत राज और रूरल डेबलपमेण्ट इन आन्ध्र प्रदेश (1974), पृष्ठ-52.
7.    सी0 पर्वथम्मा,‘ इलेक्सन्स एण्ड ट्रेडिसनल लीडरशिप इन मैसूर विलेज’, इकोनॉमिक वीकली (1964),   No. 11.
8.    पी0 एन0 रस्तोगी, ‘पोलराइजेशन, पॉलिटिक्स एण्ड इकोनॉमिक इन रूरल लाइफ इन ईस्ट यू0 पी0’, इण्डियन जोरिनल ऑफ सोशल वर्क (1968), 28(4), पृष्ठ-371-77.
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