शिक्षा ग्रामीण सामाजिक संरचना से सम्बद्ध वह महत्वपूर्ण संस्था है जो न केवल व्यक्ति में रचनात्मक प्रवृत्ति का सृजन करती है बल्कि विभिन्न समूहों के बीच एकीकरण की प्रक्रिया को भी प्रोत्साहन देती है। शिक्षा व्यक्ति के अनुभव तथा विवेक में वृद्धि करके उसमें समायोजन की क्षमता का विकास करती है। इस संस्था का यह कार्य इतना महत्वपूर्ण है कि कोई अन्य संस्था इसके स्थान पर स्थानापन्न नहीं हो सकती। यही कारण है कि सभ्यता के आरम्भिक युग से लेकर आज तक सभी समुदायों में शिक्षा की एक समयानुकूल प्रणाली की सहायता से वैयक्तिक विकास का प्रयत्न किया जाता रहा है। भारत के ग्रामीण जीवन में शिक्षा इतनी महत्वपूर्ण रही है कि एक लंबे समय तक इसने अपनी विशेष स्वरूप को बनाये रखकर ग्रामीण संस्कृति को संरक्षण प्रदान किया है। परिवर्तन के वर्तमान युग में जहॉं अनेक अन्य ग्रामीण संस्थाओं का परिवेश बदल रहा है, वहीं ग्रामीण शिक्षा आज भी अपनी विशिष्टता को बनाये हुए है।
शिक्षा एक ऐसी संस्था है जिसने सभ्यता के प्रत्येक युग में सामाजिक संरचना को व्यापक रूप से प्रभावित किया है। शिक्षा से तात्पर्य केवल पुस्तकीय या स्कूली ज्ञान से नहीं है बल्कि समाज की विभिन्न पीढ़ियां अपने संचित अनुभवों के आधार पर व्यक्ति को जो ज्ञान प्रदान करती हैं, उन्हीं की समन्वित व्यवस्था का नाम शिक्षा है। यही कारण है कि विभिन्न युगों में शिक्षा के स्वरूप में सदैव परिवर्तन होता रहा है। प्राचीन समाजों में परम्पराएं, प्रथाएं, लोक गाथाएं और सांस्कृतिक नियम शिक्षा के आधार थे, जबकि वर्तमान जटिल और औद्योगिक समाजों में शिक्षा एक औपचारिक संस्था है जिसकी व्यवस्था राज्य और अनेक कल्याणकारी संगठनों द्वारा की जाती है। शिक्षा का रूप चाहे अनौपचारिक हो अथवा औपचारिक, यह वह संस्था है जो सामाजिक आवश्यकताओं और समय की मांग के अनुसार नई पीढ़ियों का समाजीकरण करती है। इसका कार्य सभी वर्ग के लोगों को समाज की प्रत्याशाओं से परिचित कराना और उनके व्यक्तित्व को विकसित करना है। यही कारण है कि आधुनिक समाजों में शिक्षा को एक ऐसी संस्था के रूप में देखा जाता है जो व्यक्ति को अपने समाज के नियमों के अनुकूल आचरण करना सिखाती है।
शिक्षा वह महत्वपूर्ण संस्थागत प्रक्रिया है जो ग्रामीण जीवन के विभिन्न पक्षों को प्रभावित करती रही है। शिक्षा समाजीकरण की एक प्रक्रिया ही नहीं है अपितु सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों को आगामी पीढ़ियों तक पहुँचाने तथा विभिन्न समस्याओं का सर्वोत्तम समाधान ढूंढ़ने का भी सबसे महत्वपूर्ण अभिकरण है। शिक्षा ने आज गांव के प्रौद्योगिक विकास, आर्थिक संरचना, राजनैतिक जीवन और व्यक्तित्व के विकास को एक दूसरे से इस प्रकार सम्बद्ध कर दिया है कि कुछ समय पहले तक ऐसी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी।
फिलिप्स का कथन है कि ‘‘शिक्षा वह संस्था है जिसका केन्द्रीय तत्व ज्ञान का संग्रह है।’’1
शिक्षा को आंग्ल भाषा में ‘एजूकेशन’ कहते हैं। एजूकेशन (Education) शब्द की व्युत्पत्ति लैटिन भाषा के एडूकेटम शब्द से हुई है। एडूकेटम का अर्थ है शिक्षण की कला। ए (E) का अर्थ है अंदर से तथा डूको (Duco) का अर्थ है आगे बढ़ाना या विकास करना। इस प्रकार शिक्षा व्यक्ति के अंदर छिपी हुई समस्त शक्तियों को सामाजिक वातावरण में विकसित करने की कला है।2 सामान्य शब्दों में कहा जा सकता है कि शिक्षा ज्ञान के संग्रह तथा उपयोग की व्यवस्था है।
इमाईल दुर्खीम ने शिक्षा की प्रकृति और इसके उद्दश्यों को स्पष्ट करते हुए कहा है कि ‘‘शिक्षा अधिक आयु के लोगों द्वारा ऐसे लोगों के प्रति किया जाने वाला कार्य है जो अभी सामाजिक जीवन में प्रवेश करने के योग्य नहीं हैं।
इसका उद्देश्य बच्चों में उन भौतिक, बौद्धिक एवं नैतिक विशेषताओं का विकास करना है जो उनके लिए सम्पूर्ण समाज और पर्यावरण से अनुकूलन करने के लिए आवश्यक है।’’3
महात्मा गांधी के शब्दों में ‘‘शिक्षा से मेरा अभिप्राय बच्चों के शरीर, मन और आत्मा में विद्यमान सर्वोत्तम गुणों का सर्वांगीण विकास करना है।’’4
ब्राउन तथा रूसेक ने लिखा है ‘‘शिक्षा अनुभवों की वह सम्पूर्णता है जो किशोर और वयस्क दोनों की अभिवृत्तियों को प्रभावित करती है तथा उनके व्यवहारों का निर्धारण करती है।’’5
इस प्रकार स्पष्ट होता है कि शिक्षा वह प्रक्रिया है जिसमें सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक, तार्किक एवं अनुभवसिद्ध तथा ऐसे सभी विचारों का समावेश होता है जिनका उद्देश्य व्यक्ति में उन गुणों का विकास करना है जिनके द्वारा व्यक्ति अपने सामाजिक तथा भौतिक पर्यावरण से अनुकूलन करके अपने व्यक्तित्व का विकास कर सके।
किसी भी समाज में शिक्षा का कोई भी रूप या कोई भी प्रणाली विद्यमान हो इसका कार्य कुछ विशेष उद्देश्यों को पूरा करना है। शिक्षा के प्रमुख मौलिक उद्देश्य निम्नलिखित हैं-6
1. शिक्षा का सर्वप्रथम उद्देश्य व्यक्ति को अपने सामाजिक मूल्यों और अपेक्षाओं के अनुकूल बनाना है।
2. व्यक्ति का नैतिक विकास करने के साथ ही उसमें वे क्षमताएं और कुशलताएं लाना है जिससे वह अपने समय की आवश्यकताओं के अनुरूप अपने व्यक्तित्व का विकास कर सके।
3. वर्तमान युग में शिक्षा का एक प्रमुख उद्देश्य श्रम विभाजन तथा विशेषीकरण में वृद्धि करके आर्थिक विकास की आवश्यकताओं को पूरा करना है। तकनीकी शिक्षा इसी उद्देश्य का एक साधन है।
4. व्यक्ति की मनोवृत्तियों तथा विचारों को तर्कपूर्ण बनाकर आत्म नियंत्रण को प्रोत्साहन देना भी शिक्षा का महत्वपूर्ण उद्देश्य है।
वर्तमान शिक्षा प्रणाली का रूप परम्परागत शिक्षा की प्रकृति तथा उद्देश्यों से काफ़ी भिन्न है। आज शिक्षा की प्रकृति औपचारिक ही नहीं है अपितु परिवार से प्रभावित होने की जगह यह परिवार को प्रभावित कर रही है। सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक व्यवस्था का शिक्षा से घनिष्ठ सम्बन्ध है। सामाजिक स्तरीकरण तथा गतिशीलता में वृद्धि करने में आधुनिक शिक्षा का विशेष योगदान है। शिक्षा को आज विशेषीकरण के सर्वप्रमुख साधन के रूप में देखा जाता है। आधुनिक शिक्षा की एक अन्य विशेषता इसका धर्मनिर्पेक्ष स्वरूप भी है।
भारत की 72.22 प्रतिशत जनता गांवों में निवास करती है और जिस देश की इतनी बड़ी आबादी ग्रामीण हो वहां ग्रामीण विकास के बिना देश के विकास की कल्पना ही बेमानी होगी। ग्रामीण विकास का अर्थ है-ग्रामीणों को आर्थिक, सामाजिक एवं राजनैतिक सभी क्षेत्रों में विकास के समुचित अवसर उपलब्ध कराना। गांवों के चतुर्दिक विकास के लिए स्वतंत्रता के पश्चात् व्यापक कार्यक्रम तैयार किए गए परन्तु इनके द्वारा ग्रामीण विकास के लक्ष्य को प्राप्त करने में आशातीत सफलता प्राप्त नहीं की जा सकी। इस स्थिति के लिए यद्यपि अनेक कारण उत्तरदायी हैं लेकिन सर्वप्रमुख कारण गांवों में शिक्षा का समुचित प्रसार न हो सकना है। यह तथ्य गांवों में शिक्षा की आवश्यकता को पूर्णतया स्पष्ट कर देता है। ग्रामीण जीवन में शिक्षा की आवश्यकता तथा इसके औचित्य को स्पष्ट करते हुए प्रो. देसाई ने अनेक कारण जैसे- आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक, नैतिक तथा सांस्कृतिक आदि का उल्लेख किया है।7
भारत में ग्रामीण शिक्षा का ऐतिहासिक विश्लेषण करने के लिए डॉ.देसाई8 ने इसे तीन कालों में विभक्त किया है-
1. पूर्व ब्रिटिश काल में शिक्षा।
2. ब्रिटिश काल में शिक्षा।
3. स्वतंत्र भारत में शिक्षा।
ब्रिटिश शासन से पूर्व भारत में शिक्षा का स्वरूप एक ऐसी अर्थव्यवस्था से संबंधित था जो केवल जीवन की अनिवार्य आवश्यकताओं को पूरा करने में ही सहायक था। उस काल में विभिन्न प्रकार की शिक्षा के लिए कोई विशिष्ट संस्थाएं नहीं थीं। कृषि, उद्योग तथा व्यवसाय का ज्ञान भी पाठशालाओं में नहीं दिया जाता था। परिवार के अनुभवी और वयोवृद्ध सदस्यों द्वारा ही परिवार के सदस्यों को यह ज्ञान प्रदान किया जाता था। व्यक्ति का अधिकांश जीवन परिवार और जाति तक ही सीमित होने के कारण ऐसी शिक्षा को आवश्यक समझा जाता था जो उसे अपनी संस्कृति तथा अंतर्वैयक्तिक सम्बन्धों के स्वरूप से परिचित करा सके। नैतिक एवं बौद्धिक शिक्षा देने का कार्य पुरोहितों एवं उपदेशकों का था। परिवार, जाति तथा अन्य संगठनों द्वारा आयोजित धार्मिक समारोहों, त्योहारों और उत्सवों में ग्रामीणों को लौकिक, धार्मिक एवं कलात्मक जीवन की शिक्षा प्राप्त होती थी। गांवों में कृषि तथा कुटीर उद्योगों की शिक्षा व्यक्ति को पैतृक आधार पर प्राप्त होती थी। ग्रामीण जीवन की यह सम्पूर्ण शिक्षा धर्म प्रधान थी जिसमें व्यक्तिवादिता एवं धन के संचय का कोई महत्व नहीं था। यह शिक्षा एक ओर व्यक्ति को प्राकृतिक शक्तियों में विश्वास करना सिखाती थी तो दूसरी ओर पौराणिक गाथाओं के आधार पर व्यवहारों का निर्धारण करने और समूह से अनुकूलन करने पर बल देती थी। इसका प्रमुख उद्देश्य परम्परागत संस्कृति के सन्दर्भ में व्यक्तित्व का विकास करना था।
ब्रिटिश काल में भारतीय शिक्षा के स्वरूप में महत्वपूर्ण परिवर्तनों का श्रीगणेश हुआ, प्राचीन शिक्षा के स्थान पर एक धर्मनिर्पेक्ष एवं उदारवादी आधुनिक शिक्षा की शुरुआत हुई। इस काल में शिक्षा का प्रसार मुख्य रूप से नगरों में हुआ। यह शिक्षा प्रणाली महगी होने के कारण गांवों के अधिकांश व्यक्ति इसका कोई लाभ उठा सकने की स्थिति में नहीं थे फिर भी गांवों के मध्यम वर्गीय और सम्भ्रान्त परिवारों के बच्चों को कुछ सीमा तक यह शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिलने लगा। आधुनिक शिक्षा प्राप्त युवक गांवों में लौटने पर व्यवहारों के नये प्रतिमानों को प्रोत्साहन देने लगे। यह युवक धीरे-धीरे न केवल परम्परागत लोकाचारों तथा प्रथागत व्यवहारों के आलोचक बन गये बल्कि इन्होंने पाश्चात्य संस्कृति को भी आत्मसात करना आरम्भ कर दिया। पश्चिमी शिक्षा धर्मनिर्पेक्ष होने के कारण परम्परागत शिक्षा से पूर्णतया भिन्न थी। इस शिक्षा को ग्रहण करने वाले व्यक्तियों को न केवल सरकारी नौकरियोँ में प्राथमिकता मिलती थी अपितु इसी आधार पर उनकी सामाजिक प्रस्थिति को भी अन्यों से बेहतर समझा जाने लगा। ऐसी स्थिति में स्वाभाविक था कि उच्च स्थिति प्राप्त करने की लालसा ने अनेक ग्रामीण परिवारों को इस शिक्षा के प्रति आकर्षित किया। अंग्रेज़ी माध्यम से दी जाने वाली शिक्षा ने मुख्य रूप से नगरीय जीवन को अधिक प्रभावित किया लेकिन इसका मुख्य परिणाम यह हुआ कि देश का बहुत बड़ा जन-समुदाय आधुनिक विचारों एवं प्राविधिक ज्ञान से वंचित रह गया।9 व्यावहारिक रूप से भारत का ग्रामीण समुदाय इस शिक्षा से कोई उल्लेखनीय लाभ नहीं प्राप्त कर सका। इसका अनुमान इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि भारत में 150 वर्ष से भी अधिक समय तक अंग्रेजों द्वारा शासन करने के बावज़ूद भी 86 प्रतिशत जनसंख्या अशिक्षित ही रही।
स्वतंत्रता के पश्चात् भारत में शिक्षा के विकास पर विशेष ध्यान दिया गया। इसका मुख्य उद्देश्य सभी ग्रामीण तथा नगरीय क्षेत्रों में एक नवीन चेतना का विकास करना तथा राष्ट्र निर्माण में ग्रामीणों का सक्रिय सहयोग प्राप्त करना था। भारत में आज प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य कर दिया गया है, फिर भी ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी अधिकांश बच्चे शिक्षा से वंचित हैं।
भारत में ग्रामीण शिक्षा से सम्बन्धित समस्याओं के निदान के लिए समय-समय पर अनेक योजनाएं प्रस्तुत की जाती रही हैं। इनका उद्देश्य ब्रिटिश कालीन शिक्षा से उत्पन्न ग्रामीण विषमताओं के प्रभाव को कम करना तथा ग्रामीण आवश्यकताओं के अनुरूप शिक्षा की व्यवस्था करना था। स्वतंत्रता आन्दोलन के अंतर्गत शिक्षा में सुधार की मांग भी ज़ोर पकड़ने लगी। इस स्थिति में महात्मा गांधी ने सर्वप्रथम 1938 में वर्धा योजना प्रस्तुत की जिसके अंतर्गत ग्रामीण शिक्षा को नवीन रूप देने का प्रयत्न किया गया। यह शिक्षा प्रणाली बच्चों के आधारभूत विकास को दृष्टि में रखते हुए प्रस्तावित की गई थी। अतः गांधी जी ने इस शिक्षा को ‘बुनियादी शिक्षा’ का नाम दिया। इसके साथ ही गांवों में प्रौढ़ व्यक्तियों को साक्षर बनाने एवं कृषि से सम्बन्धित ज्ञान प्रदान करने के लिए परीक्षण हेतु प्रौढ़ शिक्षा को सफलता पूर्वक लागू किया गया।
सन् 1947 में भारत के स्वतंत्र होने के बाद शिक्षा के विकास की प्रक्रिया को इस तथ्य से समझा जा सकता है कि सन् 1950 में जहां प्राथमिक विद्यालयों की कुल संख्या 2.10 लाख थी वहीं सन् 2003-04 तक यह 7.12 लाख हो गई। इसी प्रकार उच्च प्राथमिक विद्यालयों की संख्या 13600 से 19 गुना बढ़कर लगभग 2.62 लाख हो गई है। 7वें अखिल भारतीय शैक्षिक सर्वेक्षण के अस्थायी आकड़ों (2002) के अनुसार देश की 12.31 लाख बस्तियों में से 87 प्रतिशत में प्राथमिक स्कूल थे जो एक किमी. की दूरी के भीतर थे। सन् 1950-51 में कुल प्राथमिक विद्यालय के शिक्षकों की संख्या 6.24 लाख थी जो 2002-03 तक बढ़कर 36.89 लाख हो गई। महिला शिक्षकों की संख्या भी इसी अवधि में बढ़कर 0.95 लाख से 14.88 लाख हो गई। प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालयों में सन् 1950 में जहां 42.60 प्रतिशत बच्चे शिक्षा ग्रहण कर रहे थे, आज शिक्षा प्राप्त करने वाले बच्चों की संख्या 92 प्रतिशत से भी अधिक है। स्वतंत्रता के समय भारत में माध्यमिक स्कूलों की संख्या 7416 थी जो सन् 2003-04 में बढ़कर 145962 हो गई है। सन् 1947 में भारत में 25 विश्वविद्यालय थे जिनकी संख्या (2005-06 में) 335 हो गयी है। इसी प्रकार 1950 में जहां 700 महाविद्यालय थे, वे बढ़कर 1849 महिला कॉलेजों सहित 17,625 हो गये हैं। देश में तकनीकी संस्थानों की संख्या में वृद्धि हुई है। वर्ष 1992-97 के 562 स्नातक स्तरीय कॉलेजों की तुलना में यह संख्या 2005-06 में 1478 हो गई है। पहले देश में सिर्फ़ 46 इंजीनियरिंग कॉलेज और 53 पॉलिटेक्निक संस्थान थे जबकि वर्ष 2001-02 में 838 इंजीनियरिंग/वास्तुशिल्प कॉलेज और 1,160 पॉलीटेक्निक संस्थान हो गये हैं।10 सामाजिक कल्याण के लिए विकलांग बच्चों तथा अनुसूचित जातियों और जन जातियों के बच्चों को शिक्षा की विशेष सुविधायें दी जा रही हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में प्रतिभाशाली बच्चों के लिए नवोदय विद्यालयों की स्थापना की गयी है। वैज्ञानिक शिक्षा के विकास के लिए शोध-संस्थानों की स्थापना के अतिरिक्त बड़े-बड़े इंजीनियरिंग तथा मेडिकल कॉलेजों के विस्तार को विशेष महत्व दिया गया है। इस प्रकार भारत में आज शिक्षा को आर्थिक तथा सामाजिक विकास के सबसे महत्वपूर्ण माध्यम के रूप में स्वीकार किया जाता है।
भारत में शिक्षा के विकास के लिए समय-समय पर अनेक आयोगों की स्थापना हुई जिनकी सिफ़ारिशों के आधार पर शिक्षा के उद्देश्यों और प्राथमिकताओं का निर्धारण किया गया। इस सम्बन्ध में सन् 1986 में घोषित ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के आधार पर सातवीं पंचवर्षीय योजना की तुलना में आठवीं और नवीं पंचवर्षीय योजना की अवधि में उच्च शिक्षा पर किये जाने वाले व्यय को कम करके प्राथमिक और प्रौढ़ शिक्षा पर अधिक व्यय किया गया। सन् 1992 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 की समीक्षा करके अब पुनः इसे नया रूप दे दिया गया है। इसके अन्तर्गत यह निश्चित किया गया कि सन् 2001 आरम्भ होने से पहले 14 वर्ष तक के सभी बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा दी जायगी। इसके लिए प्राथमिक शिक्षा पर होने वाले व्यय के प्रतिशत में वृद्धि की गयी है।11
मानव विकास में शिक्षा सबसे महत्वपूर्ण निवेश है। पिछले दशकों में साक्षरता, स्कूल दाखि़लों, स्कूलों के नेटवर्क और तकनीकी शिक्षा सहित उच्च शिक्षा के संसाधनों में फैलाव की दृष्टि से काफ़ी प्रगति हुई है। साक्षरता दर, जो 1951 में 18.43 प्रतिशत थी, 2011 में बढ़कर 74.04 प्रतिशत पहुँच गयी है। 1990 के दशक को बुनियादी शिक्षा की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण पड़ाव माना गया है क्योंकि जनगणना 2001 में साक्षरता में 12.63 प्रतिशत की वृद्धि दर्शायी गयी है जो 1951 के बाद की सबसे अधिक वृद्धि है। प्राथमिक स्तर पर सकल दाखि़ला अनुपात 1950-51 के 42.6 प्रतिशत से बढ़कर 2003-04 में 98.3 प्रतिशत पहुँच गया है। इसी प्रकार उच्च प्राथमिक स्तर के लिए इसी अवधि में यह दर 12.7 प्रतिशत से बढ़कर 62.5 प्रतिशत हो गई है।12
सन्दर्भः
1. बी.एस.फिलिप्स, सोशियोलॉजी, सोशल स्ट्रक्चर ऐण्ड चेंज, पेज-305.
2. एन.आर. स्वरूप सक्सेना, शिक्षा के दार्शनिक एवं समाजशास्त्रीय सिद्धान्त, सूर्या पब्लिकेशन मेरठ, 2006, पेज-19.
3. क्वोटेड बाई टी.बी. बाटोमोर, सोशियोलॉजी, पेज-275.
4. एम.के. गांधी, हरिजन, 1973.
5. ब्राउन ऐण्ड रूसेक, अवर रेशियल ऐण्ड माइनॉरिटीज, पेज-12,13.
6. डॉ.जी.के. अग्रवाल, समाजशास्त्र, 2006, पेज-145.
7. प्रो.ए.आर.देसाई, रूरल सोशियोलॉजी इन इण्डिया, बाम्बे, 1968, पेज-65,66.
8. वही, पेज-66,67.
9. डॉ.ए.आर.देसाई, ‘‘सोशल चेंज ऐण्ड एजूकेशनल पॉलिटिक्स’ इन दि सोशियोलॉजी ऑफ एजूकेशन इन इण्डिया (N.C.E.R.T. 1967), पेज-108.
10. भारत, 2007, पेज-716-719.
11. भारत, 2002, पेज-78.
12. भारत, 2007, पेज-716.
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