Saturday, December 21, 2013

भारत में शिक्षा का विकास

शिक्षा ग्रामीण सामाजिक संरचना से सम्बद्ध वह महत्वपूर्ण संस्था है जो न केवल व्यक्ति में रचनात्मक प्रवृत्ति का सृजन करती है बल्कि विभिन्न समूहों के बीच एकीकरण की प्रक्रिया को भी प्रोत्साहन देती है। शिक्षा व्यक्ति के अनुभव तथा विवेक में वृद्धि करके उसमें समायोजन की क्षमता का विकास करती है। इस संस्था का यह कार्य इतना महत्वपूर्ण है कि कोई अन्य संस्था इसके स्थान पर स्थानापन्न नहीं हो सकती। यही कारण है कि सभ्यता के आरम्भिक युग से लेकर आज तक सभी समुदायों में शिक्षा की एक समयानुकूल प्रणाली की सहायता से वैयक्तिक विकास का प्रयत्न किया जाता रहा है। भारत के ग्रामीण जीवन में शिक्षा इतनी महत्वपूर्ण रही है कि एक लंबे समय तक इसने अपनी विशेष स्वरूप को बनाये रखकर ग्रामीण संस्कृति को संरक्षण प्रदान किया है। परिवर्तन के वर्तमान युग में जहॉं अनेक अन्य ग्रामीण संस्थाओं का परिवेश बदल रहा है, वहीं ग्रामीण शिक्षा आज भी अपनी विशिष्टता को बनाये हुए है।
शिक्षा एक ऐसी संस्था है जिसने सभ्यता के प्रत्येक युग में सामाजिक संरचना को व्यापक रूप से प्रभावित किया है। शिक्षा से तात्पर्य केवल पुस्तकीय या स्कूली ज्ञान से नहीं है बल्कि समाज की विभिन्न पीढ़ियां अपने संचित अनुभवों के आधार पर व्यक्ति को जो ज्ञान प्रदान करती हैं, उन्हीं की समन्वित व्यवस्था का नाम शिक्षा है। यही कारण है कि विभिन्न युगों में शिक्षा के स्वरूप में सदैव परिवर्तन होता रहा है। प्राचीन समाजों में परम्पराएं, प्रथाएं, लोक गाथाएं और सांस्कृतिक नियम शिक्षा के आधार थे, जबकि वर्तमान जटिल और औद्योगिक समाजों में शिक्षा एक औपचारिक संस्था है जिसकी व्यवस्था राज्य और अनेक कल्याणकारी संगठनों द्वारा की जाती है। शिक्षा का रूप चाहे अनौपचारिक हो अथवा औपचारिक, यह वह संस्था है जो सामाजिक आवश्यकताओं और समय की मांग के अनुसार नई पीढ़ियों का समाजीकरण करती है। इसका कार्य सभी वर्ग के लोगों को समाज की प्रत्याशाओं से परिचित कराना और उनके व्यक्तित्व को विकसित करना है। यही कारण है कि आधुनिक समाजों में शिक्षा को एक ऐसी संस्था के रूप में देखा जाता है जो व्यक्ति को अपने समाज के नियमों के अनुकूल आचरण करना सिखाती है।
शिक्षा वह महत्वपूर्ण संस्थागत प्रक्रिया है जो ग्रामीण जीवन के विभिन्न पक्षों को प्रभावित करती रही है। शिक्षा समाजीकरण की एक प्रक्रिया ही नहीं है अपितु सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों को आगामी पीढ़ियों तक पहुँचाने तथा विभिन्न समस्याओं का सर्वोत्तम समाधान ढूंढ़ने का भी सबसे महत्वपूर्ण अभिकरण है। शिक्षा ने आज गांव के प्रौद्योगिक विकास, आर्थिक संरचना, राजनैतिक जीवन और व्यक्तित्व के विकास को एक दूसरे से इस प्रकार सम्बद्ध कर दिया है कि कुछ समय पहले तक ऐसी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी।
फिलिप्स का कथन है कि ‘‘शिक्षा वह संस्था है जिसका केन्द्रीय तत्व ज्ञान का संग्रह है।’’1
शिक्षा को आंग्ल भाषा में ‘एजूकेशन’ कहते हैं। एजूकेशन (Education) शब्द की व्युत्पत्ति लैटिन भाषा के एडूकेटम शब्द से हुई है। एडूकेटम का अर्थ है शिक्षण की कला। ए (E) का अर्थ है अंदर से तथा डूको (Duco) का अर्थ है आगे बढ़ाना या विकास करना। इस प्रकार शिक्षा व्यक्ति के अंदर छिपी हुई समस्त शक्तियों को सामाजिक वातावरण में विकसित करने की कला है।2 सामान्य शब्दों में कहा जा सकता है कि शिक्षा ज्ञान के संग्रह तथा उपयोग की व्यवस्था है।
इमाईल दुर्खीम ने शिक्षा की प्रकृति और इसके उद्दश्यों को स्पष्ट करते हुए कहा है कि ‘‘शिक्षा अधिक आयु के लोगों द्वारा ऐसे लोगों के प्रति किया जाने वाला कार्य है जो अभी सामाजिक जीवन में प्रवेश करने के योग्य नहीं हैं।
इसका उद्देश्य बच्चों में उन भौतिक, बौद्धिक एवं नैतिक विशेषताओं का विकास करना है जो उनके लिए सम्पूर्ण समाज और पर्यावरण से अनुकूलन करने के लिए आवश्यक है।’’3
महात्मा गांधी के शब्दों में ‘‘शिक्षा से मेरा अभिप्राय बच्चों के शरीर, मन और आत्मा में विद्यमान सर्वोत्तम गुणों का सर्वांगीण विकास करना है।’’4
ब्राउन तथा रूसेक ने लिखा है ‘‘शिक्षा अनुभवों की वह सम्पूर्णता है जो किशोर और वयस्क दोनों की अभिवृत्तियों को प्रभावित करती है तथा उनके व्यवहारों का निर्धारण करती है।’’5
इस प्रकार स्पष्ट होता है कि शिक्षा वह प्रक्रिया है जिसमें सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक, तार्किक एवं अनुभवसिद्ध तथा ऐसे सभी विचारों का समावेश होता है जिनका उद्देश्य व्यक्ति में उन गुणों का विकास करना है जिनके द्वारा व्यक्ति अपने सामाजिक तथा भौतिक पर्यावरण से अनुकूलन करके अपने व्यक्तित्व का विकास कर सके।
किसी भी समाज में शिक्षा का कोई भी रूप या कोई भी प्रणाली विद्यमान हो इसका कार्य कुछ विशेष उद्देश्यों को पूरा करना है। शिक्षा के प्रमुख मौलिक उद्देश्य निम्नलिखित हैं-6
1. शिक्षा का सर्वप्रथम उद्देश्य व्यक्ति को अपने सामाजिक मूल्यों और अपेक्षाओं के अनुकूल बनाना है।
2. व्यक्ति का नैतिक विकास करने के साथ ही उसमें वे क्षमताएं और कुशलताएं लाना है जिससे वह अपने समय की आवश्यकताओं के अनुरूप अपने व्यक्तित्व का विकास कर सके।
3. वर्तमान युग में शिक्षा का एक प्रमुख उद्देश्य श्रम विभाजन तथा विशेषीकरण में वृद्धि करके आर्थिक विकास की आवश्यकताओं को पूरा करना है। तकनीकी शिक्षा इसी उद्देश्य का एक साधन है।
4. व्यक्ति की मनोवृत्तियों तथा विचारों को तर्कपूर्ण बनाकर आत्म नियंत्रण को प्रोत्साहन देना भी शिक्षा का महत्वपूर्ण उद्देश्य है।
वर्तमान शिक्षा प्रणाली का रूप परम्परागत शिक्षा की प्रकृति तथा उद्देश्यों से काफ़ी भिन्न है। आज शिक्षा की प्रकृति औपचारिक ही नहीं है अपितु परिवार से प्रभावित होने की जगह यह परिवार को प्रभावित कर रही है। सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक व्यवस्था का शिक्षा से घनिष्ठ सम्बन्ध है। सामाजिक स्तरीकरण तथा गतिशीलता में वृद्धि करने में आधुनिक शिक्षा का विशेष योगदान है। शिक्षा को आज विशेषीकरण के सर्वप्रमुख साधन के रूप में देखा जाता है। आधुनिक शिक्षा की एक अन्य विशेषता इसका धर्मनिर्पेक्ष स्वरूप भी है।
भारत की 72.22 प्रतिशत जनता गांवों में निवास करती है और जिस देश की इतनी बड़ी आबादी ग्रामीण हो वहां ग्रामीण विकास के बिना देश के विकास की कल्पना ही बेमानी होगी। ग्रामीण विकास का अर्थ है-ग्रामीणों को आर्थिक, सामाजिक एवं राजनैतिक सभी क्षेत्रों में विकास के समुचित अवसर उपलब्ध कराना। गांवों के चतुर्दिक विकास के लिए स्वतंत्रता के पश्चात् व्यापक कार्यक्रम तैयार किए गए परन्तु इनके द्वारा ग्रामीण विकास के लक्ष्य को प्राप्त करने में आशातीत सफलता प्राप्त नहीं की जा सकी। इस स्थिति के लिए यद्यपि अनेक कारण उत्तरदायी हैं लेकिन सर्वप्रमुख कारण गांवों में शिक्षा का समुचित प्रसार न हो सकना है। यह तथ्य गांवों में शिक्षा की आवश्यकता को पूर्णतया स्पष्ट कर देता है। ग्रामीण जीवन में शिक्षा की आवश्यकता तथा इसके औचित्य को स्पष्ट करते हुए प्रो. देसाई ने अनेक कारण जैसे- आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक, नैतिक तथा सांस्कृतिक आदि का उल्लेख किया है।7
भारत में ग्रामीण शिक्षा का ऐतिहासिक विश्लेषण करने के लिए डॉ.देसाई8 ने इसे तीन कालों में विभक्त किया है-
1. पूर्व ब्रिटिश काल में शिक्षा।
2. ब्रिटिश काल में शिक्षा।
3. स्वतंत्र भारत में शिक्षा।
ब्रिटिश शासन से पूर्व भारत में शिक्षा का स्वरूप एक ऐसी अर्थव्यवस्था से संबंधित था जो केवल जीवन की अनिवार्य आवश्यकताओं को पूरा करने में ही सहायक था। उस काल में विभिन्न प्रकार की शिक्षा के लिए कोई विशिष्ट संस्थाएं नहीं थीं। कृषि, उद्योग तथा व्यवसाय का ज्ञान भी पाठशालाओं में नहीं दिया जाता था। परिवार के अनुभवी और वयोवृद्ध सदस्यों द्वारा ही परिवार के सदस्यों को यह ज्ञान प्रदान किया जाता था। व्यक्ति का अधिकांश जीवन परिवार और जाति तक ही सीमित होने के कारण ऐसी शिक्षा को आवश्यक समझा जाता था जो उसे अपनी संस्कृति तथा अंतर्वैयक्तिक सम्बन्धों के स्वरूप से परिचित करा सके। नैतिक एवं बौद्धिक शिक्षा देने का कार्य पुरोहितों एवं उपदेशकों का था। परिवार, जाति तथा अन्य संगठनों द्वारा आयोजित धार्मिक समारोहों, त्योहारों और उत्सवों में ग्रामीणों को लौकिक, धार्मिक एवं कलात्मक जीवन की शिक्षा प्राप्त होती थी। गांवों में कृषि तथा कुटीर उद्योगों की शिक्षा व्यक्ति को पैतृक आधार पर प्राप्त होती थी। ग्रामीण जीवन की यह सम्पूर्ण शिक्षा धर्म प्रधान थी जिसमें व्यक्तिवादिता एवं धन के संचय का कोई महत्व नहीं था। यह शिक्षा एक ओर व्यक्ति को प्राकृतिक शक्तियों में विश्वास करना सिखाती थी तो दूसरी ओर पौराणिक गाथाओं के आधार पर व्यवहारों का निर्धारण करने और समूह से अनुकूलन करने पर बल देती थी। इसका प्रमुख उद्देश्य परम्परागत संस्कृति के सन्दर्भ में व्यक्तित्व का विकास करना था।
ब्रिटिश काल में भारतीय शिक्षा के स्वरूप में महत्वपूर्ण परिवर्तनों का श्रीगणेश हुआ, प्राचीन शिक्षा के स्थान पर एक धर्मनिर्पेक्ष एवं उदारवादी आधुनिक शिक्षा की शुरुआत हुई। इस काल में शिक्षा का प्रसार मुख्य रूप से नगरों में हुआ। यह शिक्षा प्रणाली महगी होने के कारण गांवों के अधिकांश व्यक्ति इसका कोई लाभ उठा सकने की स्थिति में नहीं थे फिर भी गांवों के मध्यम वर्गीय और सम्भ्रान्त परिवारों के बच्चों को कुछ सीमा तक यह शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिलने लगा। आधुनिक शिक्षा प्राप्त युवक गांवों में लौटने पर व्यवहारों के नये प्रतिमानों को प्रोत्साहन देने लगे। यह युवक धीरे-धीरे न केवल परम्परागत लोकाचारों तथा प्रथागत व्यवहारों के आलोचक बन गये बल्कि इन्होंने पाश्चात्य संस्कृति को भी आत्मसात करना आरम्भ कर दिया। पश्चिमी शिक्षा धर्मनिर्पेक्ष होने के कारण परम्परागत शिक्षा से पूर्णतया भिन्न थी। इस शिक्षा को ग्रहण करने वाले व्यक्तियों को न केवल सरकारी नौकरियोँ में प्राथमिकता मिलती थी अपितु इसी आधार पर उनकी सामाजिक प्रस्थिति को भी अन्यों से बेहतर समझा जाने लगा। ऐसी स्थिति में स्वाभाविक था कि उच्च स्थिति प्राप्त करने की लालसा ने अनेक ग्रामीण परिवारों को इस शिक्षा के प्रति आकर्षित किया। अंग्रेज़ी माध्यम से दी जाने वाली शिक्षा ने मुख्य रूप से नगरीय जीवन को अधिक प्रभावित किया लेकिन इसका मुख्य परिणाम यह हुआ कि देश का बहुत बड़ा जन-समुदाय आधुनिक विचारों एवं प्राविधिक ज्ञान से वंचित रह गया।9 व्यावहारिक रूप से भारत का ग्रामीण समुदाय इस शिक्षा से कोई उल्लेखनीय लाभ नहीं प्राप्त कर सका। इसका अनुमान इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि भारत में 150 वर्ष से भी अधिक समय तक अंग्रेजों द्वारा शासन करने के बावज़ूद भी 86 प्रतिशत जनसंख्या अशिक्षित ही रही।
स्वतंत्रता के पश्चात् भारत में शिक्षा के विकास पर विशेष ध्यान दिया गया। इसका मुख्य उद्देश्य सभी ग्रामीण तथा नगरीय क्षेत्रों में एक नवीन चेतना का विकास करना तथा राष्ट्र निर्माण में ग्रामीणों का सक्रिय सहयोग प्राप्त करना था। भारत में आज प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य कर दिया गया है, फिर भी ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी अधिकांश बच्चे शिक्षा से वंचित हैं।
भारत में ग्रामीण शिक्षा से सम्बन्धित समस्याओं के निदान के लिए समय-समय पर अनेक योजनाएं प्रस्तुत की जाती रही हैं। इनका उद्देश्य ब्रिटिश कालीन शिक्षा से उत्पन्न ग्रामीण विषमताओं के प्रभाव को कम करना तथा ग्रामीण आवश्यकताओं के अनुरूप शिक्षा की व्यवस्था करना था। स्वतंत्रता आन्दोलन के अंतर्गत शिक्षा में सुधार की मांग भी ज़ोर पकड़ने लगी। इस स्थिति में महात्मा गांधी ने सर्वप्रथम 1938 में वर्धा योजना प्रस्तुत की जिसके अंतर्गत ग्रामीण शिक्षा को नवीन रूप देने का प्रयत्न किया गया। यह शिक्षा प्रणाली बच्चों के आधारभूत विकास को दृष्टि में रखते हुए प्रस्तावित की गई थी। अतः गांधी जी ने इस शिक्षा को ‘बुनियादी शिक्षा’ का नाम दिया। इसके साथ ही गांवों में प्रौढ़ व्यक्तियों को साक्षर बनाने एवं कृषि से सम्बन्धित ज्ञान प्रदान करने के लिए परीक्षण हेतु प्रौढ़ शिक्षा को सफलता पूर्वक लागू किया गया।
सन् 1947 में भारत के स्वतंत्र होने के बाद शिक्षा के विकास की प्रक्रिया को इस तथ्य से समझा जा सकता है कि सन् 1950 में जहां प्राथमिक विद्यालयों की कुल संख्या 2.10 लाख थी वहीं सन् 2003-04 तक यह 7.12 लाख हो गई। इसी प्रकार उच्च प्राथमिक विद्यालयों की संख्या 13600 से 19 गुना बढ़कर लगभग 2.62 लाख हो गई है। 7वें अखिल भारतीय शैक्षिक सर्वेक्षण के अस्थायी आकड़ों (2002) के अनुसार देश की 12.31 लाख बस्तियों में से 87 प्रतिशत में प्राथमिक स्कूल थे जो एक किमी. की दूरी के भीतर थे। सन् 1950-51 में कुल प्राथमिक विद्यालय के शिक्षकों की संख्या 6.24 लाख थी जो 2002-03 तक बढ़कर 36.89 लाख हो गई। महिला शिक्षकों की संख्या भी इसी अवधि में बढ़कर 0.95 लाख से 14.88 लाख हो गई। प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालयों में सन् 1950 में जहां 42.60 प्रतिशत बच्चे शिक्षा ग्रहण कर रहे थे, आज शिक्षा प्राप्त करने वाले बच्चों की संख्या 92 प्रतिशत से भी अधिक है। स्वतंत्रता के समय भारत में माध्यमिक स्कूलों की संख्या 7416 थी जो सन् 2003-04 में बढ़कर 145962 हो गई है। सन् 1947 में भारत में 25 विश्वविद्यालय थे जिनकी संख्या (2005-06 में) 335 हो गयी है। इसी प्रकार 1950 में जहां 700 महाविद्यालय थे, वे बढ़कर 1849 महिला कॉलेजों सहित 17,625 हो गये हैं। देश में तकनीकी संस्थानों की संख्या में वृद्धि हुई है। वर्ष 1992-97 के 562 स्नातक स्तरीय कॉलेजों की तुलना में यह संख्या 2005-06 में 1478 हो गई है। पहले देश में सिर्फ़ 46 इंजीनियरिंग कॉलेज और 53 पॉलिटेक्निक संस्थान थे जबकि वर्ष 2001-02 में 838 इंजीनियरिंग/वास्तुशिल्प कॉलेज और 1,160 पॉलीटेक्निक संस्थान हो गये हैं।10 सामाजिक कल्याण के लिए विकलांग बच्चों तथा अनुसूचित जातियों और जन जातियों के बच्चों को शिक्षा की विशेष सुविधायें दी जा रही हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में प्रतिभाशाली बच्चों के लिए नवोदय विद्यालयों की स्थापना की गयी है। वैज्ञानिक शिक्षा के विकास के लिए शोध-संस्थानों की स्थापना के अतिरिक्त बड़े-बड़े इंजीनियरिंग तथा मेडिकल कॉलेजों के विस्तार को विशेष महत्व दिया गया है। इस प्रकार भारत में आज शिक्षा को आर्थिक तथा सामाजिक विकास के सबसे महत्वपूर्ण माध्यम के रूप में स्वीकार किया जाता है।
भारत में शिक्षा के विकास के लिए समय-समय पर अनेक आयोगों की स्थापना हुई जिनकी सिफ़ारिशों के आधार पर शिक्षा के उद्देश्यों और प्राथमिकताओं का निर्धारण किया गया। इस सम्बन्ध में सन् 1986 में घोषित ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के आधार पर सातवीं पंचवर्षीय योजना की तुलना में आठवीं और नवीं पंचवर्षीय योजना की अवधि में उच्च शिक्षा पर किये जाने वाले व्यय को कम करके प्राथमिक और प्रौढ़ शिक्षा पर अधिक व्यय किया गया। सन् 1992 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 की समीक्षा करके अब पुनः इसे नया रूप दे दिया गया है। इसके अन्तर्गत यह निश्चित किया गया कि सन् 2001 आरम्भ होने से पहले 14 वर्ष तक के सभी बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा दी जायगी। इसके लिए प्राथमिक शिक्षा पर होने वाले व्यय के प्रतिशत में वृद्धि की गयी है।11
मानव विकास में शिक्षा सबसे महत्वपूर्ण निवेश है। पिछले दशकों में साक्षरता, स्कूल दाखि़लों, स्कूलों के नेटवर्क और तकनीकी शिक्षा सहित उच्च शिक्षा के संसाधनों में फैलाव की दृष्टि से काफ़ी प्रगति हुई है। साक्षरता दर, जो 1951 में 18.43 प्रतिशत थी, 2011 में बढ़कर 74.04 प्रतिशत पहुँच गयी है। 1990 के दशक को बुनियादी शिक्षा की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण पड़ाव माना गया है क्योंकि जनगणना 2001 में साक्षरता में 12.63 प्रतिशत की वृद्धि दर्शायी गयी है जो 1951 के बाद की सबसे अधिक वृद्धि है। प्राथमिक स्तर पर सकल दाखि़ला अनुपात 1950-51 के 42.6 प्रतिशत से बढ़कर 2003-04 में 98.3 प्रतिशत पहुँच गया है। इसी प्रकार उच्च प्राथमिक स्तर के लिए इसी अवधि में यह दर 12.7 प्रतिशत से बढ़कर 62.5 प्रतिशत हो गई है।12
सन्दर्भः
1. बी.एस.फिलिप्स, सोशियोलॉजी, सोशल स्ट्रक्चर ऐण्ड चेंज, पेज-305.
2. एन.आर. स्वरूप सक्सेना, शिक्षा के दार्शनिक एवं समाजशास्त्रीय सिद्धान्त, सूर्या पब्लिकेशन मेरठ, 2006, पेज-19.
3. क्वोटेड बाई टी.बी. बाटोमोर, सोशियोलॉजी, पेज-275.
4. एम.के. गांधी, हरिजन, 1973.
5. ब्राउन ऐण्ड रूसेक, अवर रेशियल ऐण्ड माइनॉरिटीज, पेज-12,13.
6. डॉ.जी.के. अग्रवाल, समाजशास्त्र, 2006, पेज-145.
7. प्रो.ए.आर.देसाई, रूरल सोशियोलॉजी इन इण्डिया, बाम्बे, 1968, पेज-65,66.
8. वही, पेज-66,67.
9. डॉ.ए.आर.देसाई, ‘‘सोशल चेंज ऐण्ड एजूकेशनल पॉलिटिक्स’ इन दि सोशियोलॉजी ऑफ एजूकेशन इन  इण्डिया (N.C.E.R.T. 1967), पेज-108.
10. भारत, 2007, पेज-716-719.
11. भारत, 2002, पेज-78.
12. भारत, 2007, पेज-716.
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Wednesday, October 23, 2013

मानवाधिकार और भारतीय समाज

      प्रत्येक समाज में व्यक्ति के कुछ ऐसे अधिकार होते हैं जो उनसे छीने नहीं जा सकते जैसे- मानव की गरिमा, स्त्री-पुरुष के समानता का अधिकार आदि। ऐसे अधिकारों को मूलाधिकार, मौलिक अधिकार या मानवीय अधिकार कहते हैं। मानवाधिकार व्यक्ति को मानव होने के नाते तथा जन्म लेते ही प्राप्त हो जाता है। यह वह अधिकार है जो हमारी प्रकृति में अन्तर्निहित है तथा जिसके बिना हम मनुष्य के रूप में जीवित नहीं रह सकते हैं। मानव अधिकार तथा मूल स्वतन्त्रतायें हमें अपने मानवीय गुणों का विकास तथा आध्यात्मिक एवं अन्य आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करने में सहायक होती हैं।
      मानव सभ्यता के सम्पूर्ण इतिहास में विभिन्न व्यक्तियों के अधिकारों और शक्तियों के बीच कुछ न कुछ भेद सदैव बना रहा है। शक्ति और अधिकारों के असमान सामाजिक विभाजन को सामाजिक स्तरीकरण कहा जाता है। स्तरीकरण प्रत्येक समाज की अनिवार्य विशेषता होती है। सामाजिक विकास के इतिहास में विभिन्न कालों तथा समाजों में सामाजिक स्तरीकरण का रूप एक-दूसरे से भिन्न देखने को मिलता रहा है। जिन समाजों में आयु, लिंग, प्रजाति अथवा लिंग के आधार पर समाज को विभिन्न स्तरों में विभाजित किया जाता है, वहॉं बन्द स्तरीकरण की प्रधानता होती है। ऐसे स्तरीकरण में व्यक्ति को अपनी सामाजिक प्रस्थिति में परिवर्तन करने की छूट नहीं होती। इसके विपरीत जिन समाजों में सम्पत्ति, व्यवसाय या व्यक्तिगत योग्यता के आधार पर सामाजिक स्तरीकरण विकसित होता है, उसे हम खुला हुआ स्तरीकरण कहते हैं। ऐसे स्तरीकरण में व्यक्तियों की योग्यता या आर्थिक शक्ति में परिवर्तन होने से उनकी सामाजिक-आर्थिक प्रस्थिति में परिवर्तन हो जाता है।
      बॉटोमोर ने मानव इतिहास मे प्रचलित सामाजिक स्तरीकरण के चार प्रमुख प्रकारों- दास-प्रथा, जागीर प्रथा, जाति प्रथा तथा वर्ग-व्यवस्था का उल्लेख किया है। इसके अतिरिक्त वर्तमान समाजों में स्तरीकरण का एक अन्य रूप भी विद्यमान है जिसे शक्ति-व्यवस्था के रूप में देखा जा सकता है।
      दास-प्रथा सामाजिक स्तरीकरण का सबसे प्रारम्भिक रूप था, जो प्राचीन रोम, यूनान तथा दक्षिण अमेरिका के अनेक भागों में शुरू से विद्यमान रही है। जिस मालिक के पास जितने अधिक दास होते थे, उनकी प्रस्थिति उतनी ही उच्च होती थी। दासों के साथ मालिकों द्वारा पशुता का व्यवहार किया जाता था। यह असमानता के चरम रूप का प्रतिनिधित्व करती है। मध्यकालीन यूरोप में सामाजिक स्तरीकरण का रूप जागीरदारी व्यवस्था के रूप में था। ये जागीरें प्रथा और कानून द्वारा मान्य थी। इसमें तीन वर्ग- पादरी/पुरोहित (उच्च), सामन्त/कुलीन (मध्यम), तथा जनसाधारण (निम्न) होते थे, जिनके कार्य क्रमशः पूजा, लोगों के हितों को देखना और भोजन की व्यवस्था था। जागीरों के मालिक सामन्त (कृषि भूमि के स्वामी) थे। जाति व्यवस्था सामाजिक स्तरीकरण का एक बन्द स्वरूप है, जबकि वर्ग व्यवस्था खुला एवं सार्वभौमिक स्वरूप। शक्ति व्यवस्था वर्तमान युग की विशेषता है, जिसमें राजनैतिक अधिकारों का महत्व बढ़ा है। शक्ति का अभिप्राय राजनैतिक शक्ति से है और राजनैतिक शक्ति का सम्बन्ध व्यक्ति के नेतृत्व, भूस्वामित्व, समर्थकों की संख्या तथा राजनैतिक प्रभाव से है।
      उपर्युक्त सभी व्यवस्थाओं में मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन हुआ है। हमारे पूर्वज (भारतीय ऋषि और मनीषी) बहुत ही दूरदर्शी थे, इसलिए उन्होंने उपर्युक्त सभी से हटकर एक अलग व्यवस्था  अर्थात् वर्ण व्यवस्था का निर्माण किया, जिसमें व्यक्ति के मानवाधिकारों के उल्लंघन की गुन्जाइश तनिक भी न थी। वर्ण व्यवस्था में व्यक्ति की प्रस्थिति/वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) का निर्धारण उसकी योग्यता (गुण) के आधार पर होता था।
      भारतीय ऋषियों और मनीषियों द्वारा निर्मित वर्ण व्यवस्था भी समय के प्रभाव से न बच सकी और दूषित होकर जाति व्यवस्था के रूप में परिवर्तित हो गयी। जाति व्यवस्था में व्यक्ति के प्रस्थिति का आधार है- जन्म या वंशानुक्रम। वर्ण व्यवस्था में जिन वर्णों को उच्च स्थान प्राप्त था, उनके द्वारा अपने संतानों के भी उच्चता को बनाये रखने/निश्चित रखने के लिए एक साजिश के तहत जाति व्यवस्था का निर्माण किया गया।
      भारत में मध्य-काल/मुगल शासन काल में उच्च जातियों द्वारा निम्न जातियों के ऊपर बहुत ज्यादा अन्याय/शोषण/अमानवीय व्यवहार किया गया। यह अमानवीय व्यवहार ब्रिटिश शासन काल तक विद्यमान रहा, क्योंकि अंग्रेजों ने भारतीयों के सामाजिक जीवन में हस्तक्षेप करना मुनासिब नहीं समझा। ब्रिटिश शासन इस माने में महत्वपूर्ण रहा, क्योंकि इस काल में अनेक समाज-सुधारकों ने अपने आन्दोलनों द्वारा समाज-सुधार का कार्य आरम्भ किया। इनमें राजाराम मोहन राय, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, रानाडे, स्वामी दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानन्द तथा श्रीमती एनी बेसेन्ट आदि प्रमुख हैं।
      इस प्रकार स्पष्ट है कि आजादी से पूर्व एक लम्बे समय तक हमारे देश एवं समाज में मानवाधिकारों का हनन हुआ। 15 अगस्त, 1947 को देश आजाद हुआ। देश एवं समाज में पुनः मानवाधिकारों का हनन न हो, इसके लिए भारतीय नीति एवं संविधान निर्माताओं ने संविधान के भाग-तीन में नागरिकों के लिए मौलिक अधिकारों (अनु0 12 से 35 तक) की व्यवस्था की है। ये मौलिक अधिकार हमें राज्य के विरुद्ध प्राप्त हैं। ये इतने महत्वपूर्ण है कि कोई भी भारतीय नागरिक इनके हनन की दशा में संविधान के अनु0 226 के तहत सीधे उच्च न्यायालय तथा अनु0 32 के अन्तर्गत उच्चतम न्यायालय में जा सकता है। इतना ही नहीं भारतीय संविधान के भाग-चार (अनु0 36-51 तक) में राज्य के लिए नीति-निर्देशक तत्वों की व्यवस्था की गयी है। उच्चतम न्यायालय ने केशवानन्द भारती बनाम भारत संघ (1973), मेनका गॉंधी बनाम भारत संघ (1978) तथा शाहबानो प्रकरण (1985) के वाद में मानवाधिकारों के संरक्षण पर महत्वपूर्ण निर्णय दिया है। सर्वोच्च न्यायालय ने यह व्यवस्था की है कि कोई भी व्यक्ति (भारतीय नागरिक) 50 पैसे के पोस्ट कार्ड पर उसको पत्र लिखकर अपने मूलाधिकारों की रक्षा करवा सकता है। सन् 2006 में सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय पुलिस के अपर्याप्त मानवाधिकारों के प्रतिक्रिया स्परूप पुलिस सुधार के आदेश जारी किये।
      स्वतन्त्रता के बाद भी भारत में मानवाधिकारों का उल्लंघन हुआ। इस संदर्भ में 1975-77 में आपात-काल की स्थिति, 1984 में ऑपरेशन ब्लू स्टार और सिक्ख विरोधी दंगे, 1989 में कश्मीरी बगावत (जिसने कश्मीरी पण्डितों का नस्ली आधार पर सफाया किया, हिन्दू मन्दिरों को नष्ट-भ्रष्ट किया, हिन्दुओं और सिक्खों की हत्या की, विदेशी पर्यटकों एवं सरकारी कार्यकर्ताओं का अपहरण किया।), 1992 में हिन्दू-जनसमूह द्वारा विबादित ढांचा ध्वस्त करना और परिणामस्वरूप साम्प्रदायिक दंगे, 2002 में गुजरात में हिंसा तथा सितम्बर-अक्टूबर, 2013 में मुजफ्फरनगर (उ0 प्र0) में हुई साम्प्रदायिक हिंसा आदि घटनाएं प्रमुख हैं। भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में प्रथम एवं द्वितीय विश्वयुद्ध और विभिन्न कालो में मानवाधिकारों का घोर हनन हुआ है। अतः इसके संरक्षण के लिए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी प्राविधान किया गया है। संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अन्तर्गत मानव-अधिकार को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। चार्टर की प्रस्तावना में मानव के मौलिक अधिकारों के प्रति विश्वास प्रकट किया गया है। चार्टर के अनु0 1(13) के अनुसार, संयुक्त राष्ट्र संघ का यह महत्वपूर्ण उद्देश्य है कि वह मानव-अधिकारों तथा मौलिक स्वतन्त्रता को बिना जाति, भाषा, लिंग, धर्म आदि के भेदभाव के प्रोत्साहन प्रदान करे। अनु0 13(ख) के अनुसार, महासभा को यह अधिकार प्राप्त है कि वह मानव अधिकार तथा मौलिक स्वतन्त्रता के लिए अध्ययन कराये तथा अपने सुझाव प्रस्तुत करे। अनु0 55 में प्रावधान है कि स्थायित्व तथा भलाई की दशायें उत्पन्न करने हेतु संयुक्त राष्ट्र का कर्तव्य है कि वह जाति, भाषा, लिंग अथवा धर्म के भेदभाव के बिना मानवीय अधिकारों तथा मौलिक स्वतन्त्रताओं के सार्वभौमिक आदर तथा उनके पालन को प्रोत्साहित करे। अनु0 56 में संयुक्त राष्ट्र के सदस्यों ने संकल्प लिया है कि वे अनु0 55 में वर्णित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए संस्था के सहयोग से पृथक तथा संयुक्त कार्यवाही करेंगे। अनु0 68 के अनुसार, आर्थिक तथा सामाजिक परिषद् मानवीय अधिकारों तथा मौलिक स्वतन्त्रताओं को प्रोत्साहित करने के विषय में कमीशन नियुक्त कर सकती है। अनु0 76(ग) के अनुसार, प्रन्यासी प्रणाली का उत्तरदायित्व है कि वह मानवीय अधिकारों तथा मौलिक स्वतन्त्रताओं को प्रन्यासी क्षेत्रों में लागू करवाने का प्रयास करे। लुइस हेकिन्स (‘‘द यू. एन. ऐण्ड ह्यूमन राइट्स’’ इण्टरनेशनल आर्गनाइजेशन, 1965, पृ. 504.) के अनुसार, ‘‘ संयुक्त राष्ट्र की किसी भी कथा में मानवीय अधिकारों का महत्वपूर्ण स्थान होगा।’’ न्यायाधीश लाटर पैट के अनुसार, ‘‘संयुक्त राष्ट्र चार्टर मानवीय अधिकार के मामले में राज्यों पर कुछ उत्तरदायित्व अधिरोपित करता है।’’ प्रो0 जॉन हम्फ्री के अनुसार, ‘‘संयुक्त राष्ट्र संघ ने मानवीय अधिकारों के विषय में कुछ नियम तथा मानदण्ड स्थापित किये हैं और राज्यों का यह उत्तरदायित्व है कि वे इस विषय में सहयोग करें।’’ परन्तु जहॉं तक मानवीय अधिकारों को लागू कराने का प्रश्न है, अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अन्तर्गत ऐसी प्रभावशाली संस्था का अभाव है। प्रो0 ओपेनहाइम के अनुसार, ‘‘मौलिक मानव-अधिकारों को लागू करने के मामले में अन्तर्राष्ट्रीय विधि में अभी बहुत प्रारम्भिक व्यवस्था है।’’ इस विषय में सबसे प्रमुख रुकावट यह है कि संयुक्त राष्ट्र राज्यों के घरेलू मामलांे में हस्तक्षेप नहीं कर सकता है।
      संयुक्त राष्ट्र संघ की सामान्य महासभा ने 10 दिसम्बर, 1948 को मानवीय अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा को पारित किया। इसमें कुल 30 अनुच्छेद है, जिसमें मानव-अधिकारों तथा मौलिक स्वतन्त्रताओं के विषय में विस्तार से उल्लेख है। इस घोषणा से राष्ट्रों को प्रेरणा तथा मार्गदर्शन प्राप्त हुआ है और वे अपने संविधान व अधिनियमों द्वारा उक्त घोषणा को क्रियान्वित करने के लिए अग्रसर हुए हैं। इस घोषणा के बाद महासभा ने सभी सदस्य देशों से पुनरावेदन किया कि वे इस घोषणा का प्रचार करें और देशों एवं प्रदेशों की राजनैतिक स्थिति पर आधारित भेदभाव का विचार किये बिना विशेषतः विद्यालयों और अन्य शिक्षण संस्थाओं में इसके प्रचार, प्रदर्शन, पठन और व्याख्या का प्रबन्ध करें।
      भारत सरकार ने मानवाधिकार के संरक्षण के लिए आजादी के पूर्व एवं पश्चात में निम्नलिखित अधिनियमों को पारित किया है-
1. सती-प्रथा निरोधक अधि0, 1829.
2. हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधि0, 1856.
3. बाल-विवाह निरोधक अधि0, 1929.
4. हिन्दू स्त्रियों का सम्पत्ति अधिकार अधि0, 1937.
5. आपराधिक जनजाति अधि0, 1952.
6. विशेष विवाह अधि0, 1954.
7. हिन्दू विवाह अधि0, 1955.
8. अस्पृश्यता अपराध अधि0, 1955.
9. सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) अधि0, 1958.
10. दहेज निराधक अधि0, 1961.
11. जम्मू और कश्मीर जन सुरक्षा अधि0, 1978.
12. अनु0 जाति और अनु0 जनजाति (अत्याचार निवारण) अधि0, 1989.
13. पंचायती राज अधि0, 1992.
14. मानवाधिकार संरक्षण अधि0, 1993. (राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की स्थापना)
15. सूचना का अधिकार (मूल अधिकार) अधि0, 2005.
16. राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधि0, 2005.
17. घरेलू हिंसा अधि0, 2005.
      उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भारत तथा अन्य देशों में मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन हुआ है तथा इसके संरक्षण के लिए राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास भी हुए हैं/हो रहे हैं, किन्तु यह समस्या आज भी विद्यमान है। केवल कानून बना देने से इस समस्या का समाधान सम्भव नहीं है। इस समस्या से निजात पाने के लिए यह आवश्यक है कि हम सभी गीता के उपदेश पर अमल करें अर्थात् ऐसा कोई भी कृत्य दूसरे के लिए न करें जो यदि दूसरा व्यक्ति वही कृत्य हमारे साथ करता है तो उससे हमें कष्ट का अनुभव हो या हमारे प्रतिकूल हो।

संदर्भः-
1. डॉ0 जी0 के0 अग्रवाल, ग्रामीण समाजशास्त्र, एसबीपीडी पब्लिशिंग हाउस आगरा, 2010.
2. टी. बी. बॉटोमोर, इलिएट्स एण्ड सोसाइटी, 1964.
3. टी. बी. बॉटोमोर, दि सोशिलिस्ट इकोनॉमी, 1990.
4. डॉ0 जे0 एन0 पाण्डेय, भारत का संविधान, सेन्ट्रल लॉ एजेन्सी इलाहाबाद, 1994.
5. लुइस हेकिन्स, ‘‘द यू. एन. ऐण्ड ह्यूमन राइट्स’’ इण्टरनेशनल ऑर्गनाइजेशन (1965).
6. एच0 लाटरपैट, इण्टरनेशनल लॉ ऐण्ड ह्यूमन राइट्स.
7. प्रो0 जॉन हम्फ्री, इण्टरनेशनल ऑर्गनाइजेशन, वाल्यूम 24, संख्या 1 (1970).
8. ओपेनहाइम्स, इण्टरनेशनल लॉ.
9. डॉ0 एस0 के0 कपूर, अन्तर्राष्ट्रीय विधि, सेन्ट्रल लॉ एजेन्सी इलाहाबाद, 1994.
10. जे0 जी0 स्टार्क, इन्ट्रोडक्शन टु इन्टरनेशनल लॉ, 1989.
11. www.hi.wikipedia.org/wiki/
12. डॉ0 महेन्द्र कुमार मिश्रा, मानवाधिकार एवं सामाजिक न्याय, एजुकेशनल पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स, लक्ष्मीनगर दिल्ली, 2011.
13. डॉ0 विप्लव, मानवाधिकार के आइने में महिलाएं, विस्टा इण्टरनेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, 2011.

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Friday, October 4, 2013

पंचायती राज व्यवस्था का ग्रामीण जीवन पर प्रभाव

     भारतीय संविधान के अनुच्छेद-40 (भाग-4, नीति-निर्देशक तत्व) में राज्यों को पंचायत गठन का निर्देश दिया गया है। नीति-निर्देशक तत्वों में यह घोषणा की गयी है कि प्रत्येक राज्य पंचायतों के पुनर्गठन के लिए प्रयत्न करेगा तथा उन्हें ऐसी शक्तियां और अधिकार प्रदान करेगा जिससे पंचायतें स्वायत्त शासन की इकाई के रूप में कार्य कर सकें। पंचायती राज को लेकर बलवन्त राय मेहता समिति (1957), अशोक मेहता समिति (1977), डॉ0 जी0 वी0 के0 राव समिति (1985) और एल0 एम0 सिंघवी समिति (1986) ने महत्वपूर्ण सिफारिशें की थी। 1993 में संविधान में 73 वें और 74 वें संविधान संशोधन के तहत पंचायत राज व्यवस्था को संवैधानिक मान्यता/दर्जा प्रदान की गयी। इस व्यवस्था के अन्तर्गत महिलाओं को 33 प्रतिशत भागीदारी का सपना साकार हुआ। पंचायती राज मंत्रालय 27 मई, 2004 को अस्तित्व में आया। इस मंत्रालय का गठन 73 वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 द्वारा जोड़े गये संविधान के खण्ड-9 के क्रियान्वयन की निगरानी के लिए किया गया।1
     उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री स्वर्गीय पंडित जवाहर लाल नेहरू ने 2 अक्टूबर, 1959 को राजस्थान के नागौर में ही देश में पंचायती राज का उद्घाटन किया गया।
     वर्तमान में सम्पूर्ण भारत में 2,27,697 ग्राम पंचायतें, 5,913 पंचायत समितियां तथा 475 जिला परिषदें कार्यरत हैं। इस समय देश में कुल पंचायतों में निर्वाचित प्रतिनिधियों की संख्या लगभग 28.10 लाख है, जिसमें 36.87 प्रतिशत महिलाएं हैं।2
     लोकतान्त्रिक विकेन्द्रीकरण के एक साधन के रूप में पंचायत राज व्यवस्था ने भारत के ग्रामीण जीवन को व्यापक रूप से प्रभावित किया है। पंचायत राज व्यवस्था आज देश के सभी भागों में कार्यान्वित हो चुकी है तथा इसकी विभिन्न इकाइयों द्वारा एक समन्वित विकास कार्यक्रम को व्यावहारिक रूप दिया जा रहा है। इस व्यवस्था के अनुसार प्रजातान्त्रिक विकेन्द्रीकरण से सम्बन्धित सभी कार्यक्रमों को ग्रामीण स्तर पर लागू करने के लिए पंचायत, सहकारिता तथा विद्यालय तीन महत्वपूर्ण संस्थायें  हैं। एक विशेष क्षेत्र में विकास कार्यक्रमों को लागू करने का दायित्व निर्वाचित सदस्यों वाली ग्राम पंचायत का है जबकि आर्थिक विकास का कार्य सहकारी समितियों के माध्यम से पूरा किया जाता है। ग्रामीण विद्यालय एक ऐसा सामाजिक केन्द्र बन गया है जिसके द्वारा ग्रामीणों को शिक्षात्मक, मनोरंजनात्मक तथा सांस्कृतिक आवश्कताओं को पूरा किया जाता है। विभिन्न सहयोगी संगठनों, जैसे- महिला एवं युवा मण्डलों, कृषक तथा कारीगर समितियों आदि को अपने-अपने क्षेत्र की पंचायतों के विकास कार्यक्रमों से इस प्रकार मिला दिया गया है जिससे पंचायत राज व्यवस्था अधिक से अधिक प्रभावपूर्ण ढंग से अपना कार्य कर सके। इन सम्पूर्ण प्रयत्नों के फलस्वरूप आज पंचायत राज व्यवस्था ने ग्रामीण जीवन को व्यापक रूप से प्रभावित किया है। विभिन्न अध्ययनों के आधार पर पंचायत राज व्यवस्था के प्रमुख प्रभावों को निम्नांकित ग्रामीण क्षेत्रों में स्पष्ट किया जा सकता है-
  1. पंचायत राज व्यवस्था ने परम्परागत शक्ति-संरचना में परिवर्तन उत्पन्न करके जातिगत निर्योग्यताओं तथा जातिगत निषेधों के प्रभाव को कम कर दिया है। एवेलेन वुड ने यह स्पष्ट किया है कि पंचायत राज व्यवस्था के फलस्वरूप ग्रामीणों को मतदान का अधिकार मिला जिससे जाति-संरचना के केवल ध्रुवीकरण की प्रक्रिया ही आरम्भ नहीं हुयी बल्कि विभिन्न जातियों को एक दूसरे के निकट सम्पर्क में आने के अवसर भी प्राप्त हुए हैं।3 डॉ0 एम0 एन0 श्रीनिवास के अनुसार पंचायती राज की स्थापना से निम्न जातियॉं विशेषकर हरिजनों में आत्म सम्मान की भावना बढ़ने के साथ ही शक्ति की एक नवीन अनुभूति का संचार हुआ है।4
  2.  ग्रामों की राजनीतिक संरचना भी आज नवीन परिवेश ग्रहण कर रही है। ग्रामों की शक्ति-संरचना अब आनुबंशिक मुखिया अथवा वृद्ध व्यक्तियों के हाथों में केन्द्रित नहीं है बल्कि इसमें जन-साधारण की सहभागिता बढ़ती जा रही है। ग्रामीण नेतृत्व अब मुख्य रूप से उन व्यक्तियों के हाथों में केन्द्रित होने लगा है जो मध्यम वर्ग के सदस्य हैं अथवा जिनके परिवार का परम्परागत शक्ति-संरचना में कोई प्रत्यक्ष योगदान नहीं था। जी0 आर0 रेड्डी ने अपने अध्ययन के द्वारा यह ज्ञात किया कि पंचायत राज की त्रि-स्तरीय व्यवस्था में जिला परिषदों और पंचायत समितियों के विभिन्न पदों पर आज वे ही व्यक्ति आसीन हैं जो आर्थिक रूप से सम्पन्न हैं परन्तु ग्रामीण स्तर पर अब 60 प्रतिशत से 68 प्रतिशत पिछड़ी और अनुसूचित जातियों के सदस्यों का प्रतिनिधित्व हो चुका है तथा इनमें से 72 प्रतिशत व्यक्ति ऐसे हैं जिनकी वार्षिक आय 2500 रूपये से भी कम है।5 ग्रामीण नेतृत्व में युवा सदस्यों का प्रभाव बढ़ा है तथा राजनीतिक आकांक्षाओं ने जाति, धर्म और नातेदारी के परम्परागत आधारों को दुर्बल बना दिया है।6 पर्वथम्मा ने मैसूर के गॉंवों का अध्ययन करके इसी प्रकार के निष्कर्ष प्रस्तुत किये हैं।7
  3. पंचायती राज व्यवस्था से सम्बद्ध विभिन्न विकास कार्यक्रमों के फलस्वरूप ग्रामीणों के जीवन-स्तर तथा प्रति व्यक्ति आय में भी पर्याप्त सुधार हुआ है। आर्थिक सुधार के साथ ग्रामीण जीवन में व्याप्त अन्धविश्वासों तथा कुरीतियों का प्रभाव पहले की तुलना में बहुत कम हो चुका है। आज ग्रामीण समुदाय में पहले की अपेक्षा हीनता और निराशा की भावना स्पष्ट रूप से नहीं दिखायी देती।
  4. पंचायती राज के प्रभाव से आज ग्रामीण गतिशीलता में भी वृद्धि हुई है। यह गतिशीलता सामाजिक तथा आर्थिक सभी क्षेत्रों में विद्यमान है।
  5. गॉंव में शिक्षा का प्रसार होने तथा स्वास्थ्य सुविधाओं में वृद्धि होने से संक्रामक रोगों की समस्या पहले से काफी कम हो गयी है। पीने के पानी की व्यवस्था, स्वच्छता के नियमों के प्रति जागरूकता तथा स्वास्थ्यकारी आवास व्यवस्था के फलस्वरूप ग्रामीण स्वास्थ्य के स्तर में भी सुधार हुआ है।
  6. न्याय के क्षेत्र में भी पंचायत राज व्यवस्था से सुधार हुआ है क्योंकि न्याय पंचायतें सस्ता और शीघ्र न्याय देने का प्रयत्न करती हैं।
  7. पंचायती राज व्यवस्था का ग्रामीण जीवन पर एक स्पष्ट प्रभाव जाति पंचायतों के प्रभाव में होने वाले ह्रास के रूप में देखने को मिलता है। पंचायती राज व्यवस्था के कारण अब जाति पंचायतों का प्रभाव इतना कम हो गया है कि अधिकांश गॉंवों में जाति पंचायतों का अस्तित्व ही देखने को नहीं मिलता। फलस्वरूप ग्रामीणों का जीवन अधिक स्वतन्त्र, उदार और समतावादी बन गया है।
  8. अनेक लाभकारी प्रभावों के बाद भी पंचायती राज व्यवस्था ने ग्रामीण जीवन में कुछ विघटनकारी प्रवृत्तियों को भी जन्म दिया है जिनमें गुटबन्दी, बढ़ते हुए संघर्ष और व्यक्तिवादिता आदि प्रमुख समस्यायें हैं। पी0 एन0 रस्तोगी ने अपने अध्ययन के आधार पर यह स्पष्ट किया कि पंचायत राज व्यवस्था के फलस्वरूप ही ग्रामीण क्षेत्रों में पारस्परिक सहयोग के स्थान पर गुटवाद को प्रोत्साहन मिला है।8

     उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि पंचायती राज व्यवस्था ने ग्रामीण क्षेत्रों में अनेक स्वस्थ परिवर्तन उत्पन्न करने के साथ ही कुछ ऐसी समस्याओं को भी जन्म दिया है, जो ग्रामीण जीवन के विघटन के लिए उत्तरदायी हैं। आज गॉंवों में भी नगरों के समान व्यक्तिवादिता तथा मूल्यों के ह्रास की समस्याएं उत्पन्न हुई हैं। कुछ लोगों का मत है कि ये दुष्परिणाम पंचायती राज व्यवस्था के न होकर कार्यक्रमों के दोषपूर्ण क्रियान्वयन के हैं। वास्तविकता यह है कि पंचायती राज व्यवस्था के दुष्परिणाम इससे प्राप्त लाभों की तुलना में बहुत कम हैं। किसी भी समाज अथवा समुदाय की प्रगति का वास्तविक आधार उसके सदस्यों की सामाजिक और आर्थिक जागरूकता है। पंचायत राज व्यवस्था ने ऐसी जागरूकता उत्पन्न करने में निश्चय ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यदि कुछ क्षेत्रों में पंचायती राज व्यवस्था अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने में असफल रही है तो इसका कारण स्वयं यह व्यवस्था न होकर ग्रामीण पर्यावरण का परम्परागत असन्तुलन तथा सरकार की दोषपूर्ण नीतियॉं हैं। अतः आज गॉंवों में व्याप्त जातिवाद, दलबन्दी की भावना, अशिक्षा, उचित नेतृत्व का अभाव, पंचायतों के कार्यों की लम्बी सूची, पंचायतों की निम्न आर्थिक स्थिति तथा चुनावों की दोषपूर्ण प्रक्रिया इत्यादि वे महत्वपूर्ण कारण हैं जिनके फलस्वरूप पंचायती राज व्यवस्था अधिक सफल नहीं हो सकी है।
संदर्भः-
1.    डॉ0 जी0 के0 अग्रवाल, ग्रामीण समाजशास्त्र, एसबीपीडी पब्लिशिंग हाउस आगरा, 2010.
2.    ज्ञान चन्द्र यादव, ज्ञान भारत-2010, ज्ञान पब्लिशिंग हाउस दिल्ली-54, पृष्ठ-152.
3.    एवेलेन वुड, ‘कास्ट्स लेटेस्ट इमेज’, इकोनॉमिक वीकली, 1964, 16(4) पृष्ठ-951-52.
4.    डॉ0 एम0 एन0 श्रीनिवास, आधुनिक भारत में सामाजिक परिवर्तन, 1964.
5.    जी राम रेड्डी, ‘सोशल कम्पोजीसन ऑफ पंचायत राज: बैकग्राउण्ड ऑफ पोलीटिकल एक्जक्यूटिब्स इन आन्ध्रा’, इकोनॉमिक एण्ड पोलीटिकल वीकली, वालूम III, No. 50, 23 दिसम्बर, 1967, पृष्ठ-2211.
6.    जी राम रेड्डी, पंचायत राज और रूरल डेबलपमेण्ट इन आन्ध्र प्रदेश (1974), पृष्ठ-52.
7.    सी0 पर्वथम्मा,‘ इलेक्सन्स एण्ड ट्रेडिसनल लीडरशिप इन मैसूर विलेज’, इकोनॉमिक वीकली (1964),   No. 11.
8.    पी0 एन0 रस्तोगी, ‘पोलराइजेशन, पॉलिटिक्स एण्ड इकोनॉमिक इन रूरल लाइफ इन ईस्ट यू0 पी0’, इण्डियन जोरिनल ऑफ सोशल वर्क (1968), 28(4), पृष्ठ-371-77.
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भारत में महिला आरक्षण विधेयक एवं ग्रामीण महिलाओं में राजनीतिकजागरूकता

     भारत तथा विश्व के अधिकांश देशों में स्त्रियों की प्रस्थिति विशेषतः राजनीतिक स्थिति को लेकर सिद्धान्त और व्यवहार के बीच एक बड़ा अन्तर देखने को मिलता है। एक ओर इस्लाम के अतिरिक्त सभी धर्म तथा सामाजिक कानून स्त्रियों की प्रतिष्ठा और सम्मान को सबसे अधिक महत्व देते हैं तो दूसरी ओर व्यवहार में अधिकांश समाजों द्वारा स्त्रियों को राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक अधिकारों से वंचित किया जाता रहा है। भारत में हिन्दुओं के वैदिक धर्म में जहॉं स्त्रियों को सम्पत्ति, ज्ञान और शक्ति का प्रतीक मानकर उन्हें लक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा के रूप में मान्यता दी गयी, वहीं स्मृतिकालीन धर्म-शास्त्रों में स्त्रियों को दासी अथवा वस्तु का रूप दे दिया गया जिसके साथ पुरुष किसी भी तरह का मनमाना व्यवहार कर सकते हैं। पुरुष प्रधान सामाजिक व्यवस्था में स्त्रियों को पुरुषों की वासना-पूर्ति का एक साधन मात्र समझा जाता रहा है। यह बात उन सभी जातियों और वर्गों के लिए सच है कि जिनकी प्रणाली सामन्तवादी विचारों से प्रभावित है। हमारा सामाजिक जीवन मुख्य रूप से चार क्रियाओं से सम्बन्धित है- उत्पादन की क्रिया, प्रजनन, परिवार का प्रबन्ध तथा बच्चों का समाजीकरण। व्यावहारिक रूप से इन सभी क्रियाओं पर पुरुषों का ही एकाधिकार है। अधिकांश व्यक्ति स्त्रियों द्वारा नौकरी करने, उच्च शिक्षा ग्रहण करने अथवा परिवार के प्रबन्ध में हस्तक्षेप करने को न केवल संदेह की दृष्टि से देखते हैं बल्कि इसे अपने अहं के विरुद्ध भी मानते हैं। इक्कीसवीं सदी के तथाकथित समतावादी समाज में भी महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों में अधिक कमी नहीं हुई है, यद्यपि इन अत्याचारों के रूप में परिवर्तन अवश्य हो गया है। अनेक महिला संगठनों द्वारा चलाए जाने वाले आन्दोलन भी उनकी प्रस्थिति में अधिक परिवर्तन नहीं ला सके।
     भारत में आज महिलाओं का राजनैतिक सक्तिकरण एक महत्वपूर्ण मुद्दा बन गया है। भारत एक प्रजातान्त्रिक देश है और प्रजातन्त्र में जन-जन की भागीदारी आवश्यक है। यदि इस तर्क को स्वीकार किया जाय कि भारत जैसे देश में जहां महिलाओं की संख्या लगभग 49 प्रतित् है उस अनुपात में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बहुत कम है, ऐसी परिस्थिति में महिलाओं के राजनीतिक जागरूकता के प्रश्न महत्वपूर्ण हो जाते हैं। राजनैतिक सक्तिकरण से अभिप्राय है राजनैतिक निर्णय लेने की संस्थाओं में महिलाओं का उचित प्रतिनिधित्व। यह माना जाता है कि महिलाओं का बहुत बड़ा वर्ग सामाजिक भेद-भाव का शिकार है और उनको निर्णय लेने का मौका नहीं मिलता है, राजनैतिक सक्तिकरण भागीदारी की इस आवश्यकता को भी बढ़ाता है। इस बात से यह स्पष्ट होता है कि लोकतान्त्रिक व्यवस्था में राजनैतिक भागीदारी उन लोगों की सुनिश्चित होनी चाहिए जो अभी तक इससे वंचित रहे हैं। महिलाओं के राजनैतिक जागरूकता का अर्थ है कि इन्हें हर स्तर की विधायी संस्थाओं में प्रतिनिधित्व मिले इस बात का उन्हें सम्यक् ज्ञान हो और उसमें वे निःसंकोच अपनी सहभागिता सुनिश्चित कर सकें। यह इतिहास रहा है कि राजनैतिक दलों ने कभी भी स्वेच्छा से महिलाओं को प्रतिनिधित्व नहीं दिया जिसके कारण भारतीय संविधान में 73वें संशोधन, 1992 के माध्यम से ग्रामीण पंचायतों के स्तर पर महिलाओं के प्रतिनिधित्व को सुनिष्चित किया गया। संशोधन की धारा 243 डी (2) इस बात का निर्दे देती है कि सम्पूर्ण पदों के एक तिहाई पद महिलाओं के लिए सुरक्षित रहेंगे। धारा 243 डी (5) एवं (6) द्वारा भी पंचायती राज्य के अन्य पदों पर भी इसी प्रकार के आरक्षण का निर्देश दिया गया है।
    भारत सरकार ने लिंग आधारित विभिन्नताओं को दूर करने की यात्रा एक तरह से सन् 1953 में महिला कल्याण की नीति अपनाकर शुरू की थी बाद में यह यात्रा महिला विकास तक पहुंची और अब महिला सक्तिकरण का नारा सामने आया है। महिला सक्तिकरण की राष्ट्रीय नीति का उद्देश्य महिलाओं की प्रगति एवं विकास को सुनिश्चित करना तथा आत्म शक्ति को बढ़ाना है।
     महिलाओं को राजनीतिक प्रक्रिया में सशक्त भागीदारी देने के लिए विधायिका में आरक्षण के द्वारा इनके लिए स्थान सुनिश्चित करना आवश्यक है इसी विचार को ध्यान में रखकर भारत सरकार ने संसद में बार-बार विधेयक प्रस्तुत करके महिलाओं को आरक्षण प्रदान करने का प्रयास किया है। उल्लेखनीय है कि महिला आरक्षण विधेयक को 1996, 1998, व 1999 में भी लोक सभा में पेश किया गया था किन्तु तीनों बार पारित होने से पूर्व लोक सभा का कार्यकाल समाप्त हो जाने के कारण यह निरस्त हो गया था। विधेयक को 12 वर्ष पूर्व तत्कालीन प्रधानमन्त्री एच0 डी0 देवगौड़ा की सरकार ने 81वें संविधान संशोधन विधेयक के रूप में 12 सितम्बर, 1996 को लोक सभा में पेश किया था। यह विधेयक संयुक्त संसदीय समिति को भेज दिया गया था किन्तु 11वीं लोक सभा भंग हो जाने की वजह से यह निरस्त हो गया। बाद में दिसम्बर, 1998 में तत्कालीन अटल बिहारी बाजपेयी सरकार ने लोक सभा में 84वां संविधान संशोधन विधेयक पेशकर महिला आरक्षण की दिशा में एक और प्रयास किया। 12वीं लोक सभा भंग हो जाने के कारण यह विधेयक फिर निरस्त हो गया। लोक सभा में 23 दिसम्बर, 1999 को यह विधेयक पेश करने की एक और कोशिश हुई लेकिन राजनीतिक सहमति के अभाव में यह विधेयक आगे नहीं बढ़ पाया।
     सरकार ने बहुप्रतीक्षित और विवादित महिला आरक्षण विधेयक (108वां संविधान संशोधन विधेयक) मई, 2008 में संसद में प्रस्तुत किया। यूपीए सरकार के न्यूनतम साझा कार्यक्रम के एक बड़े वायदे को पूरा करते हुए तत्कालीन विधि मन्त्री हंसराज भारद्वाज लोक सभा एवं राज्य विधान सभाओं में महिलाओं के लिए एक तिहायी सीटों के आरक्षण के प्रावधान वाले इस विधेयक को 6 मई, 2008 को राज्य सभा में प्रस्तुत किया। सपा व जनता दल (यू) के सांसदो के भारी विरोध व हाथापायी के बीच अपने दल की महिला सांसदों के सुरक्षा घेरे में विधि मन्त्री इस विवादास्पद विधेयक को प्रस्तुत करने में सफल रहे। विधेयक पेश होने के साथ ही पीठासीन अधिकारी पी0 जे0 कुरियन ने सदन को अनिश्चित काल के लिए स्थगित करने की घोषणा कर दी। विधेयक को संसदीय समिति को सन्दर्भित किया गया है।
     विधेयक के उद्देश्यों और कारणों सम्बन्धी वक्तव्यों में कहा गया है कि सरकार ने इस सम्बन्ध में व्यक्त की गयी आम सहमति को ध्यान में रखते हुए राज्य सभा और राज्य विधान परिषदों सहित सभी विधायी निकायों में महिलाओं के लिए आरक्षण का उपबन्ध करने के वास्ते इससे पहले पेश किये गये विधेयक के आधार पर एक विधेयक पुनः पेश करने का निश्चय किया है।
     विधेयक में कहा गया है कि 108वें सविधान संशोधन अधिनियम 2008 के उपबन्ध आरम्भ से 15 वर्ष की अवधि की समाप्ति पर प्रभावी नहीं रहेंगे। इस विधेयक के जरिये संविधान के अनुच्छेद 239क, 331, और 333 में संशोधन किया जायेगा। इसी तरह अनुच्छेद 330 के पश्चात एक नया अनुच्छेद 330क, 332 के बाद 332क और 334 के बाद 334क जोड़ कर महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित करने की व्यवस्था की गयी है। 14 साल के लम्बे इन्तजार के बाद 9 मार्च, 2010 को महिलाओं को लोकसभा और विधानसभाओं में आरक्षण देनें के प्रावधान वाला (108 वॉं संविधान संशोधन) विधेयक राज्य सभा में पारित हो गया। लोक सभा में पास होना अभी बाकी है।
     उल्लेखनीय है कि इससे पूर्व संसद द्वारा 73वां और 74वां संविधान संशोधन अधिनियम 1993 पारित किये गये। इस संशोधन द्वारा ग्राम पंचायतों तथा नगर पालिकाओं में क्रमश: अनुच्छेद 343घ तथा अनुच्छेद 343न द्वारा आरक्षित एवं अनारक्षित वर्ग की महिलाओं हेतु 33 प्रतिशत् आरक्षण की व्यवस्था की गयी है इस व्यवस्था के क्रियान्वयन से देश के सभी प्रान्तों में ग्रामीण और शहरी पंचायतों के सभी स्तरों पर कई महिलायें जन प्रतिनिधियों के रूप में अहम भूमिका का निर्वाह कर रही हैं।
     राजधानी दिल्ली में पंचायती राज व्यवस्था के 15 वर्षों की उपलब्धियों तथा स्थानीय  लोक तन्त्र को अधिक सशक्त बनाने के मुद्दे पर आयोजित राष्ट्रीय सम्मेलन में प्रधान मन्त्री डॉ0 मनमोहन सिंह ने कहा है कि पंचायती राज की सबसे बड़ी सफलता यह है कि इसने महिलाओं का राजनीतिक एवं सामाजिक सशक्तिकरण किया है। सम्पूर्ण निर्वाचित पंचायत सदस्यों में 9 लाख 75 हजार महिला प्रतिनिधि हैं। एक तथ्य यह भी है कि यह संख्या विश्व में कुल निवार्चित महिला प्रतिनिधियों से भी ज्यादा है। बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेष, छत्तीसगढ़, हिमांचल प्रदेश और उत्तराखण्ड में 50 प्रतिशत् आरक्षण दिये गये हैं। इन राज्यों में महिलाओं ने कई कीर्तिमान स्थापित किये हैं।
     पंचायतों में आरक्षण के फलस्वरूप जो महिलायें चुनकर आई हैं वे इस सत्य को उजागर कर रही हैं कि महिलायें निष्क्रिय और निस्सहाय नहीं हैं। आरक्षित सीटों के अलावा अन्य सीटों पर चुना जाना इसका संकेत है। सवर्ण जाति के साथ-साथ अनु0जाति एवं अनु0जनजाति की महिलायें भी अब पंचायत में प्रतिनिधित्व कर सकती हैं।
     भारत की पंचायतों में महिलाओं को 33 प्रतिशत् आरक्षण मिल तो गया है लेकिन विधान सभा और संसद के गलियारों में महिलाओं की अपेक्षित भागीदारी सुनिश्चित करने में राष्ट्रीय राजनीतिक दल ईमानदारी नहीं दिखा रहे हैं। हमारे यहां संसद में महिलाओं का प्रतिशत् पाकिस्तान, नेपाल और ईराक से भी कम है। अन्य देशों की तुलना की जाय तो इस मामले में रवाण्डा सबसे ऊपरी पायदान पर है। यहां लोवर हाउस में 56.30 प्रतिशत् महिलायें हैं।
     आजादी के 60 साल बाद भी लोक सभा के आधी आबादी का प्रतिनिधित्व करने के लिए औसतन लगभग 50 महिलायें ही पहॅंची हैं। ये शर्मनाक आंकड़े तब और अखरते हैं जब हम याद करते हैं कि अगर पिछले आम चुनाव से पहले उक्त विधेयक पारित कर दिया गया होता तो आज लोग सभा में कम से कम 179 महिलायें होतीं।
     विधायिका में महिला आरक्षण के मामले पर सभी गतिरोधों को समाप्त करने के लिए एक नया प्रस्ताव सरकार के पास विचाराधीन है। इस प्रस्ताव के अन्तर्गत महिलाओं को समुचित प्रतिनिधित्व देने के लिए संसदीय एवं विधान सभायी सीटों की वर्तमान संख्या में एक तिहायी की वृद्धि कर उसे महिलाओं के लिए आरक्षित करने की योजना है।
     लोक सभा में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को वर्षगत क्रम में निम्न रूप से सारणीबद्ध किया जा रहा है-
            वर्ष                        महिला सदस्य संख्या
           1952                            22
           1957                            27
           1962                            34
           1967                            31
           1971                            22
           1977                            19
           1980                            28
           1984                            44
           1989                            27
           1991                            39
           1996                            39
           1998                            43
           1999                            49
           2004                            44
           2009                            59
           2014                            61
     देश के संसदीय इतिहास में पहली बार इतनी अधिक संख्या में महिलायें पॅंहुची हैं हालांकि महिलाओं की संख्या को लोक सभा में 10 फ़ीसदी तक पहॅंचने में 60 वर्ष से ज्यादा का समय लग गया। महिला आरक्षण पर उम्मीद की किरण दो चेहरों पर आकर टिकी है- एक ख़ुद यूपीए की अध्यक्षा सोनिया गॉंधी और दूसरी तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी। यूपीए की पहली बैठक में ही ममता बनर्जी ने महिलाओं को संसद और विधान सभाओं में 33 प्रतिशत् आरक्षण को जल्द से जल्द लागू करवाने की मांग कर वर्षों पुरानी महिलाओं की इस इच्छा को एक नयी गम्भीरता दे दी है। वैसे भी कांग्रेस ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में साफ़-साफ़ लिखा है कि कांग्रेस इस बात का भरोसा देती है कि अगर 15वीं लोक सभा में महिला आरक्षण बिल पास हो गया तो 16वीं लोक सभा के चुनाव का आधार यही विधेयक हो सकता है। जिसके बाद सदन में 33 प्रतिशत् महिलायें चुनकर आ सकती हैं
     प्रधान मन्त्री डॉ0 मनमोहन सिंह की पिछली सरकार में 10 महिलायें मन्त्री थीं जबकि मौजूदा सरकार में केवल 8 महिलाओं को ही शामिल किया गया है। जबकि 79 सदस्यों की इस मन्त्रिपरिषद् में महिलाओं की संख्या 26 होनी चाहिए।
     नारी सशक्तिकरण की वास्तविक उपलब्धि यह है कि वह स्वयं पर विश्वास रखकर अपने नारीत्व पर गर्व करे। अपनी शर्तों पर ज़िन्दगी जीने का उसमें साहस हो। यह काम महिला आरक्षण बिल बख़ूबी निभा सकता है। पंचायती राज व्यवस्था में महिलाओं ने अनेक उदाहरण प्रस्तुत किये हैं जैसे- आन्ध्र प्रदेश के छोटे से गांव कलवा का सरपंच फ़ातिमा बी जिसे संयुक्त राष्ट्र संघ के पूर्व महासचिव कोफी अन्नान ने पंचायत में महत्वपूर्ण काम करने के लिए स्वयं सम्मानित किया। अतः पंचायत से लेकर संसद तक सभी स्तरों पर निर्णय प्रक्रिया में समान अधिकारो और स्थान के लिए महिलाओं की सशक्तिकरण का प्रश्न राजनीतिक रूप से हल करना होगा। सभी राजनीतिक दलों के नेता को चाहिए कि आपस के मतभेदों को भुलाकर तथा पुरुष मानसिकता के पूर्वाग्रह से निकल कर इस बिल पर आम सहमति बनायें और महिला सशक्तिकरण की प्रक्रिया को तीव्रता दें।
     उपर्युक्त विश्लेषणों से स्पष्ट है कि महिला विकास का सवाल मुख्यतः एक राजनीतिक सवाल है और जब तक इसे राजनीतिक सवाल के रूप में नहीं देखा जायेगा और देश की राजनीति एवं सत्ता में महिलाओं को समान भागीदारी नहीं दी जायेगी तब तक महिलाओं की प्रगति अधूरी ही रहेगी। महिला आरक्षण एक अस्थायी आन्तरिक व्यवस्था ही हो सकती है यह सच्ची लोकतान्त्रिक प्रक्रिया और आम महिलाओं की मुख्याधारा में भागीदारी का विकल्प नहीं हो सकता परन्तु उस दिशा में एक सही कदम है। अन्ततः महिलाओं में सकारात्मक चेतना तथा समान अवसर सुविधायें दिया जाना चाहिए फिर भी उन्हें अपने पैरों पर ख़ुद खड़ा होना होगा और जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में अपनी क्षमता, योग्यता, विवेक तथा परिश्रम से आगे बढ़ना होगा।

संदर्भः-
1.    सामान्य ज्ञान दर्पण, उपकार प्रकाशन, आगरा-2, नवम्बर-2009.
2.    अमर उजाला समाचार पत्र, लखनऊ संस्करण, 10 मार्च, 2010.
3.    राम आहूजा, भारतीय सामाजिक व्यवस्था, रावत पब्लिकेशन्स, जयपुर, 1993.
4.    डॉ0 जी0 के0 अग्रवाल, समाजशास्त्र, एसबीपीडी पब्लिशिंग हाउस, आगरा, 2012.
5.    ज्ञान चन्द्र यादव, ज्ञान भारत, ज्ञान पब्लिशिंग हाउस दिल्ली-54, 2010.
6.    आशारानी व्होरा, भारतीय नारी दशा और दिशा, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, 1982.
7.    रेखा मिश्रा, वुमेन इन मुगल इण्डिया, मुंशीराम मनोहर लाल, देलही, 1967.
8.    शकुन्तला राव शास्त्री, वुमेन इन वेदिक ऐज़, भारतीय विद्या भवन, बाम्बे, 1954.
9.    अल्तेकर, ‘द पोजीशन ऑफ वुमेन इन हिन्दू सिविलाइजेशन’, बनारसीदास, देलही, 1962.
10.  एम0 एम0 लवानिया एवं अजय राठौर, भारतीय समाज, रिसर्च पब्लिकेशन्स, जयपुर, 1999.
11.  प्रमिला कपूर, मैरिज एण्ड वर्किंग वुमेन, विकास, दिल्ली, 1970.
12.  डॉ0 एम0 एन0 श्रीनिवास, आधुनिक भारत में सामाजिक परिवर्तन, 1964.

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Monday, June 24, 2013

काला धन एक सामाजिक-आर्थिक समस्या

         काला धन आज समाज की प्रमुख आर्थिक समस्या के रूप में उभरकर सामने आया है। सामाजिक सन्दर्भ में इस समस्या को समाज पर पूर्णतः नकारात्मक प्रभाव डालने वाली समस्या माना जाता है, जैसे-सामाजिक असमानता, सामाजिक वंचनाएं आदि। आर्थिक सन्दर्भ में काले धन की समस्या को समान्तर अर्थव्यवस्था, भूमिगत अर्थव्यवस्था या अनाधिकारिक अर्थव्यवस्था के रूप में देखा जाता है जो सरकार की अपरिष्कृत आर्थिक नीतियों का परिणाम है और जिसका देश की अर्थव्यवस्था तथा राष्ट्र की सामाजिक विकास-योजनाओं पर घातक प्रभाव पड़ता है। समाज की अन्य समस्याओं से तो पूरा समाज यानी समस्या पैदा करने वाले तथा अन्य सभी प्रभावित होते हैं किन्तु काले धन की समस्या से इस समस्या के उत्पादक वर्ग पर इसका कुप्रभाव नहीं पड़ता। अतः समाज में इस समस्या के उत्पादक वर्ग की संख्या उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है।
        काला धन कर अपवंचित आय है। इसे अर्जित करने वाले व्यक्ति कर-उद्देश्यों के लिए अपनी समस्त आय को प्रकट नहीं करते। उदाहरण के लिए सरकारी चिकित्सक का अनाभ्यास भत्ता लेते हुए भी निजी अभ्यास करना, अध्यापकों का ट्यूशन, परीक्षा तथा पुस्तकों की रायल्टी से धन अर्जित करते हुए भी उस आय को आयकर विवरण में न दर्शाना, अधिवक्ताओं का अपने आय-व्यय खाते में दर्शायी गयी राशि से कहीं अधिक वसूल करना आदि। इसी प्रकार रिश्वत, तस्करी, कालाबाजारी, नियन्त्रित मूल्यों से अधिक मूल्य पर वस्तुओं का विक्रय, मकान-दुकान के लिए ‘पगड़ी’ लेना, मकान को ऊॅंची बढ़ी हुई कीमतों पर बेचना जबकि लेखा-पुस्तकों में बहुत कम मूल्य दिखाना आदि कालेधन के गै़र-कानूनी स्रोत हैं।
      नेशनल इनस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एण्ड पालिसी (NIPFP) के अनुसार, ‘‘कालाधन वह आय होती है जिस पर कर की देनदारी बनती है लेकिन उसकी जानकारी टैक्स विभाग को नहीं दी जाती है।’’-इकोनॉमिक टाइम्स (हिन्दी), 28 अगस्त, 2012.
        हरिकृष्ण रावत के अनुसार, ‘‘वैध अथवा अवैध साधनों से कमाई ऐसी आय या सम्पत्ति जिसे कर बचाने के लिए छुपाया जाता है, काला धन है।’’
      किसी भी समाज में कालेधन के प्रचलन का आंकलन करना सरल नहीं है। अमरीका, इग्लैण्ड, नार्वे, स्वीडेन और इटली में अर्थशास्त्रियों ने अनेको उपाय किये लेकिन काले धन में लगे हुए धन का आंकलन नहीं कर सके। काले धन का प्रचलन न केवल विकासशील देशों में है, बल्कि यह विकसित देशों-अमरीका, ब्रिटेन, रूस, जापान, कनाडा, फ्रांस तथा जर्मनी आदि में भी फल-फूल रहा है।
       लगभग 25 वर्ष पूर्व अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोश (IMF) द्वारा कराये गये अध्ययन से पता चलता है कि भूमिगत अर्थव्यवस्था के सम्बन्ध में भारत का स्थान प्रथम है, इसके बाद अमरीका दूसरे तथा कनाडा तीसरे स्थान पर आता है। (Vito Tangani : The Underground Economy, December 1983 : 31)
      स्विट्जरलैण्ड सरकार के संघीय वित्तीय विभाग (FDF) के रिपोर्ट में विश्व बैंक के अध्ययन का हवाला देते हुए दावा किया गया है कि कम्पनी की आड़ में भ्रष्ट सम्पत्ति छिपाने का सर्वाधिक मामला अमरीका में पाया गया है, जबकि स्विट्जरलैण्ड इस मामले में भारत के साथ 13वें पायदान पर है। इस मामले में अमरीका के बाद ब्रिटिश वर्जिन आईलैण्ड, पनामा, लीसटेंसटाइन तथा बहामास शीर्ष 5 देशों में शामिल हैं।
      प्रो0 कालदार के अनुसार भारत में सन् 1953-54 में 600 करोड़ रुपया काला धन था। वाचू समिति का अनुमान था कि सन् 1965-66 में कालाधन 1,000 करोड़ रुपये था। रांगनेकर ने कालेधन के आंकडे़ 1961-62 में 1,150 करोड़ रुपये, 1964-65 में 2,350 करोड़ रुपये, 1968-69 में 2,833 करोड़ रुपये और 1969-70 में 3,080 करोड़ रुपये बताये हैं। चोपड़ा (इकोनॉमिक एण्ड पॉलिटिकल वीकली,Vol.xvii, न.17 और 18, अप्रैल 24 और मई 1, 1982) ने अनुमान लगाया कि 1960-61 में 916 करोड़ रुपये कालाधन था जो 1976-77 में बढ़कर 8,098 करोड़ रुपये हो गया। पी0 गुप्ता और एस0 गुप्ता के अनुसार हमारे देश में काले धन की राशि 1967-68 में 3,084 करोड़ रुपये और 1978-79 में 40,867 करोड़ रुपये थी। उसके अनुमान से 1967-68 में सकल घरेलू उत्पाद का 9.5 प्रतिशत कालाधन था जो 1978-79 में बढ़कर 14.9 प्रतिशत हो गया। 1981 में एक स्रोत के अनुसार कालाधन अनुमानतः 7,500 करोड़ रुपये था और दूसरे स्रोत के अनुसार अनुमानतः 25,000 करोड़ रुपये था।
      राष्ट्रीय जन वित्त प्रबन्ध और नीति संस्था के अनुमान के अनुसार कालेधन की राशि 1985 में 1,00,000 करोड़ रुपये के आस-पास या राष्ट्रीय आय का 20 प्रतिशत थी। योजना आयोग के अध्ययन के अनुसार लगभग कालाधन 70,000 करोड़ रुपये की श्रृंखला में ही था। द हिन्दुस्तान टाइम्स (2 अगस्त, 1991 पृष्ठ-11) के अनुसार प्रतिवर्ष 50,000 करोड़ रुपये काले धन के रूप में और पैदा हो जाते हैं। पूंजी  की इस अप्रत्याशित वृद्धि का परिणाम यह हुआ कि विदेशों में इसका बहाव होने लगा जो सरकारी अधिकारियों के अनुसार 500 लाख डालर था। 1996 में हमारे देश में अनुमानित कालाधन 4,00,000 करोड़ रुपये से भी अधिक था।
      भारत में कालेधन को मापने का कोई विश्वसनीय और पक्का पैमाना नहीं है। ज्यादातर अनुमान पुराने हैं और उनमें कई तरह नुक्स हैं। NIPFP की एक सूची के अनुसार 1983-84 में 32,000 से 37,000 करोड़ रुपया कालाधन था। (यह G.D.P. के 19-21 प्रतिशत के बीच है।) सन् 2010 में अमेरिका के ग्लोबल फाइनेन्सल इंटिग्रिटी ने अनुमान लगाया था कि 1948-2008 के बीच भारत से 462 अरब डालर की रकम निकली है। भारत ने तीन संस्थानों-राष्ट्रीय लोक-वित्त एवं नीति संस्थान, राष्ट्रीय वित्तीय प्रबन्ध संस्थान और राष्ट्रीय अनुप्रयुक्त आर्थिक अनुसन्धान परिषद से कालेधन का अनुमान लगाने के लिए कहा है।
      विद्वानों ने भी संकेत किया है कि हमारे समाज में विद्यमान कालेधन का लगभग 26 प्रतिशत कर अपवंचित आय से है। अमरीका में कालाधन सकल राष्ट्रीय उत्पाद का लगभग 8 प्रतिशत होने का अनुमान है। भारत में कालाधन ग़ैर-कानूनी साधनों द्वारा अधिक एकत्र किया जाता है, जबकि अमरीका में यह कानूनी स्रोतों के माध्यम से अधिक (लगभग 75 प्रतिशत) होता है।
      किसी भी देश में कालाधन उत्पन्न होने के अनेकों कारण हो सकते हैं, जैसे-अयथार्थवादी कर-कानून और कर-धोखाधड़ी, उत्पाद शुल्क की विविध दरें, सरकार की मूल्य-नियन्त्रण-नीति, कोटा-व्यवस्था, अभाव तथा त्रुटिपूर्ण सार्वजनिक वितरण-व्यवस्था, मुद्रास्फीति में वृद्धि, लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव तथा राजनैतिक-कोश बनाना, अचल भूसम्पत्ति का लेन-देन, निजीकरण तथा राजनैतिक आधार पर शासकों की कृषि-आय को आयकर के घेरे में लाने की अनिच्छा आदि।
      कालाधन देश की अर्थव्यवस्था को अपूरणीय हानि पहुंचाता है और इसका प्रभाव आम आदमी पर अधिक पड़ता है। देश का आर्थिक सन्तुलन खतरे में पड़ जाता है, सामान्य व्यापार के क्रियाकलाप प्रभावित होते हैं तथा वित्तीय एवं वाणिज्य संस्थानों के संसाधन विकृत और इधर-उधर हो जाते हैं। कालेधन से मुद्रास्फीति दबाव में वृद्धि, विकास कार्य में बाधा, संसाधनों में अव्यवस्था, कर आधार का सीमितिकरण और समानान्तर अर्थव्यवस्था का उदय आदि आर्थिक प्रभाव होते हैं।
      उपर्युक्त आर्थिक प्रभावों के अतिरिक्त कालेधन के अनेक सामाजिक दुष्परिणाम भी होते हैं। कालाधन सामाजिक असमानता को बढ़ाता है, भ्रष्टाचार को जन्म देता है, ईमानदारों में कुण्ठा पैदा करता है, तस्करी, रिश्वत जैसे अपराधों को जन्म देता है तथा समाज के ग़रीब और कमजोर वर्ग के उत्थान के कार्यक्रमों पर कुप्रभाव डालता है। यह यथार्थ दरों जैसे-विकास दर, मुद्रा स्फीति दर, बेरोज़गारी दर, ग़रीबी आदि के सही आंकलन को विकृत करता है तथा इसको रोकने की सरकारी नीतियों को प्रभावित करता है।
      भारत सरकार ने गत वर्षों में कालेधन को बाहर लाने के उद्देश्य से अनेको उपाय किये हैं। इनमें विशेष धारक बाण्ड को चलाकर, उच्च मुद्रांक वाले मुद्रा नोटों को कम करके, छापे मारकर और स्वैच्छिक घोषणा की योजनाएं आदि हैं। कालेधन को सामने लाने के लिए सरकार ने मौजूदा संस्थानों को सशक्त किया है और नये संस्थान एवं नई व्यवस्था बना रही है। एन्टी मनी-लान्डरिंग (मनी-लान्डरिंग से तात्पर्य कालेधन को वैध बनाना है।) कानून को मजबूत बनाया गया है और अधिकांश संस्थानों को उसके दायरे में लाया गया है। कालेधन के प्रसार को रोकने के लिए भारत ग्लोबल मुहिम में शामिल हुआ है, सूचनाएं बांटने के लिए कई देशों के साथ समझौता किया है। देश में आयकर-दर में लगातार कटौती से कर नियमों का पालन बढ़ा है।
      कुछ विद्वानों का मत है कि इन सभी उपायों ने वर्फ़ की चट्टान के ऊपर से स्पर्श मात्र किया है। 50 वर्षों की अवधि में इन सभी उपायों से मात्र 5,000 करोड़ रुपया ही मिला है। इन योजनाओं का मुख्य दोष यह है कि वे पहले से ही बनी हुई कालेधन की स्थिति को केवल स्पर्श ही कर पाती हैं, वे काले धन की उत्पत्ति की जड़ में नहीं जातीं और यही कारण है कि इतनी समस्याओं के बावजूद भी लोग कालाधन रखने के जोखिम उठाने को तैयार रहते हैं।
सन्दर्भः
1. हरिकृष्ण रावत, समाजशास्त्र विश्वकोश, रावत पब्लिकेशन्स जयपुर एवं नई दिल्ली, 2002.
2. राम आहूजा, सामाजिक समस्यायें, रावत पब्लिकेशन्स जयपुर एवं नई दिल्ली, 2008.
3. ओ0 पी0 चोपड़ा, ‘‘अनएकाउन्टेड इनकम: सम स्टीमेट्स’’, इकोनॉमिक एण्ड पोलिटिकल वीकली,  Vol.xvii,1982.
4. पी0 गुप्ता और एस0 गुप्ता, ‘‘इस्टीमेट्स ऑफ दि अनरिपोर्टेड इकोनॉमी इन इण्डिया’’, इकोनॉमिक एण्ड पोलिटिकल वीकली, बाम्बे,Vol.xvii,1982.
5. वी0 एस0 महाजन, रेसेन्ट डेबलपमेन्ट्स इन इण्डियन इकोनॉमी, डीप एण्ड डीप पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली, 1984.
6. डी0 आर0 पेन्डसे, ‘‘ब्लैक मनी: इट्स नेचर एण्ड काजेज’’, दि इकोनॉमिक टाइम्स, 19 मार्च, 1982.
7. के0 वी0 वर्घेष, इकोनॉमिक प्राबलम्स ऑफ मॉडर्न इण्डिया, आशीष पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, 1985.
8. दि हिन्दुस्तान टाइम्स, 2 अगस्त, 1991, पृष्ठ-11.

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Thursday, March 21, 2013

मनरेगा और ग्रामीण विकास

भारत गॉंवों का देश है। इसकी लगभग दो तिहाई आवादी गॉंवों में निवास करती है। अतः ग्रामीण क्षेत्रों का जीवन स्तर ऊॅंचा उठाये बिना राष्ट्र का विकास होना असम्भव है। आज भारत विश्व में मजबूत आर्थिक शक्ति के रूप में उभर रहा है। विश्व बैंक की ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व की चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था हो गई है। भारत में औद्योगिक उत्पादन दर तथा आर्थिक विकास दर औसतन बढ़ी है। वर्ष 2010-11 में तो यह दर 8.2 फ़ीसदी हो गयी थी1, वर्ष 2012-13 में आर्थिक विकास दर 5.7 से 5.9 प्रतिशत के बीच अनुमानित की गयी है।2 विदेशी मुद्रा भण्डार भी 30 मार्च, 2012 में 294.397 अरब डालर3 हो गया है फिर भी ग्रामीण क्षेत्रों की बदहाली देश के आर्थिक विकास की राह में कांटा बनी हुई है।
यह सही है कि स्वतन्त्र भारत की केन्द्रीय सरकार एवं विभिन्न राज्यों की राज्य सरकारों ने आरम्भ से ही ग्रामीण विकास की दिषा में अति सराहनीय क़दम उठाए हैं तथा अनेक ग्रामीण विकास योजनाओं व ग़रीबी उन्मूलन कार्यक्रमों का सृजन कर क्रियान्वित किया है। इन ग्रामीण विकास एवं ग़रीबी उन्मूलन कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में लगभग सभी राज्यों में पंचायती राज संस्थाओं की विषेष भूमिका रही है। भारत की चतुर्थ पंचवर्षीय योजना के पश्चात की सभी पंचवर्षीय योजनाओं में ग़रीबी उन्मूलन कार्यक्रमों को विशेष महत्व दिया गया तथा इन सभी योजनाओं का प्रमुख उद्देश्य विश्व से ग़रीबी निवारण करने का रहा है। इतना ही नहीं, बल्कि पिछले 65 वर्षों में विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में ग्रामीण विकास एवं ग़रीबी उन्मूलन कार्यक्रमों पर करोड़ों रूपये व्यय किये गये हैं, लेकिन इतनी अधिक राषि ख़र्च करने के बावज़ूद भी तंत्र की अयोग्यता, लापरवाही और भ्रष्टाचार के कारण ग्रामीण विकास एवं ग़रीबी निवारण की दिशा में अपेक्षित परिणाम नहीं मिल पा रहे हैं।
देश में पिछले कुछ दशकों में किए गए प्रयासों के बावजू़द भारत में ग्रामीण ग़रीबी अभी भी चिंता का विषय बनी हुई है। यद्यपि बाद के वर्षों में ग़रीबी उन्मूलन कार्यक्रमों को लगातार मजबूत बनाया गया है और यदि औसत के आधार पर देखा जाये तो ग़रीबी का स्तर जो सन् 1973-74 में भारत की जनसंख्या का 56.44 प्रतिशत् था, वह 1993-94 में घटकर 37.27 प्रतिशत हो गया है। इसके बाद भी ग्रामीण ग़रीबों की संख्या लगभग स्थिर बनी हुई है। इसकी अनुमानित संख्या लगभग 35.468 करोड़4 है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़ ग़रीबी की दर 1999-2000 में  26.1 प्रतिशत, वर्ष 2004-05 में 37.2 प्रतिशत तथा 2009-10 में 29.8 प्रतिशत हो गई है।5 विश्व के विकास पर ग़रीबी के इस बड़े प्रतिशत् के प्रभाव को आसानी से समझा जा सकता हैं।
विभिन्न वर्षों में किये गये सर्वेक्षण के अनुसार उ0 प्र0 तथा सम्पूर्ण देश में रहने वाले ग़रीबों की संख्यात्मक स्थितिः

वर्ष         उ0 प्र0  भारत
                 संख्या (लाख में)         प्रतिशत                     संख्या (लाख में)               प्रतिशत
1973 449.99 56.53 2612.90 56.44
1977-78 407.41 47.60 2642.47 53.07
1983 448.03                       46.45 2519.57 45.65
1987-88 429.74 41.10 2318.79 39.09
1993-94 496.17 42.28 2440.31 37.27
1998-99 412.00 37.00 -------                              ------
2004-05 730.70 40.90 4072.20 37.20
2009-10 737.90 37.70 3546.80 29.80
स्रोतः- समूह सृष्टिका-2001, दीन दयाल उपाध्याय राज्य ग्राम्य विकास संस्थान बख्शी का तालाब, लखनऊ, पृष्ठ-62 एवं प्रतियोगिता दर्पण/भारतीय अर्थव्यवस्था-2012, आगरा, पृष्ठ-78.
योजना आयोग के सदस्य डॉ0 अभिजीत सेन ने भी अपनी एक अध्ययन रिपोर्ट में बताया है कि 2004-05 व 2009-10 के दौरान पॉंच वर्षों में देश में निर्धनता अनुपात में जहां कमी आयी है, वहीं निर्धनों की संख्या में वृद्धि हुई है। रिपोर्ट में बताया गया है कि 2004-05 में देश की कुल 100 करोड़ जनसंख्या में लगभग 37 करोड़ लोग निर्धन थे। इस प्रकार 37.2 प्रतिशत जनसंख्या निर्धनता रेखा के नीचे थी, जबकि 2009-10 में 121 करोड़ जनसंख्या में निर्धनों की संख्या 38.5 करोड़ उन्होंने आकलित की है। डॉ0 अभिजीत सेन के इन आंकड़ों के अनुसार 2009-10 में देश में 32 प्रतिशत जनसंख्या निर्धनता रेखा के नीचे थी।6 (यद्यपि यह आंकड़े योजना आयोग के आधिकारिक आंकड़े नहीं हैं तथापि आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलूवालिया ने इससे सहमति जताई है।)
निर्धनता की स्थिति के आकलन हेतु मानव विकास रिपोर्ट में प्रस्तुत ‘मानव निर्धनता सूचकांक’ निर्धनता के परम्परागत सूचक ‘निर्धनता अनुपात’ से काफी तालमेलयुक्त प्रतीत होता है। वर्ष 1983 व 1993-94 के लिए निर्धनता अनुपात क्रमशः 44.5 प्रतिशत व 36 प्रतिशत रहा है, जबकि ‘मानव निर्धनता सूचकांक’ के तहत इन्हीं वर्षों के लिए यह आकलन क्रमशः 47 प्रतिशत व 39 प्रतिशत रहा है। रिपोर्ट के अनुसार हिमाचल प्रदेश, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, जम्मू-कश्मीर, कर्नाटक एवं केरल में ‘मानव निर्धनता सूचकांक’ में जहां प्रभावी कमी आयी है, वहीं बिहार, उ0 प्र0 व राजस्थान में इसमें मामूली कमी ही दर्ज की गयी है।7
‘‘महात्मा गॉंधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारण्टी अधिनियम’’ नामक कार्यक्रम इसी उद्देश्य की प्राप्ति हेतु केन्द्रीय सरकार द्वारा चलाया जा रहा सफल प्रयास है।8 इसकी अधिसूचना 7 सितम्बर, 2005 को जारी की गयी। इस कानून का लक्ष्य हर वित्तीय वर्ष में प्रत्येक परिवार के ऐसे वयस्क व्यक्ति को कम से कम सौ दिन का रोज़गार सृजन वाला ग़ैर-हुनर काम मुहैया कराना है जो सूखा, वनों की कटाई तथा भू-क्षरण के कारण लगातार पैदा होने वाली ग़रीबी की समस्या के निवारण में मददगार साबित हो ताकि लगातार रोजग़ार सृजन की प्रक्रिया जारी रहे।
2 फरवरी, 2006 को लागू इस कानून के प्रथम चरण में यह सुविधा 200 ज़िलों में उपलब्ध करायी गयी थी। सन् 2007-08 में इस कानून का विस्तार 330 अतिरिक्त ज़िलों में किया गया जबकि बाक़ी ज़िलों को इसमें शामिल करने की अधिसूचना 1 अप्रैल, 2008 को जारी की गयी।9 2 अक्टूबर, 2009 को इसका नाम परिवर्तित करके नरेगा (राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारण्टी अधिनियम) के स्थान पर मनरेगा (महात्मा गॉंधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारण्टी अधिनियम) कर दिया गया।10
पिछले पॉंच सालों से महात्मा गॉंधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारण्टी अधिनियम हमारे विस्तृत ग्रामीण इलाकों में ग़रीबी उपषमन का प्रमुख कार्यक्रम रहा है। जब से यह अधिनियम लागू हुआ है देश के निर्धनतम ज़िलों में लाखों लोगों के जीवन पर इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ा है। निर्धारित न्यूनतम वेतन पर 100 दिनों के रोज़गार की गारण्टी देने वाला (11 सितम्बर, 2012 से सूखा प्रभावित राज्यों में 150 दिन का रोज़गार11) यह कानून पहला ऐसा कानून है जो दरिद्र ग्रामीण परिवारों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने हेतु सरकार को विवश करता है।
मनरेगा का महत्व इस तथ्य में निहित है कि इसका संचालन अनेक स्तरों पर होता हैं। यह संवेदनशील वर्गों को ऐसे वक़्त में रोज़गार उपलब्ध कराता है जब उसके दूसरे साधन कम हो गये हों या वे अपर्याप्त हों जिससे वैकल्पिक रोज़गार उपलब्ध होता है। इससे विकास की प्रक्रिया में समानता का आयाम जुड़ता है। यह काम पाने के कानूनी अधिकार, रोज़गार की मांग करने का अधिकार तथा समय सीमा में रोज़गार उपलब्ध कराने के लिए सरकार को जवाबदेह बनाकर मज़दूरी प्राप्ति के योजनागत कार्यक्रम के लिए अधिकार पर आधारित एक प्रषासनिक ढांचा भी निर्मित करता है। प्राकृतिक संसाधनों की प्राथमिकता निर्धारण तथा स्थायी परिसम्पत्ति के सृजन पर जोर देने के कारण इसमें खेती पर आधारित अर्थव्यवस्था के स्थिर विकास के लिए इंजन बनने की भी सम्भावना है। अन्ततः विकेन्द्रीकरण के इर्द-गिर्द निर्मित इसका संचालन सम्बन्धी स्वरूप तथा स्थानीय समुदाय के प्रति इसकी समानान्तर जवाबदेही कारोबार का नया तरीक़ा प्रस्तुत करती है और पारदर्षिता तथा बुनियादी जनतन्त्र के सिद्धान्तों से संचालित प्रशासनिक सुधार का एक मॉडल भी उपलब्ध करती है। इस मायने में मनरेगा की सम्भावना बुनियादी मज़दूरी सुरक्षा तथा ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सक्रिय करने सहित जनतन्त्र को बदलाव सम्बन्धी अधिकारिता प्रदान करने के एक व्यापक क्षेत्र तक कायम है।
ग्रामीण क्षेत्रों में रोज़गार उपलब्ध कराने की केन्द्र सरकार की महत्त्वाकांक्षी ‘मनरेगा’ योजना के तहत वर्ष 2011-12 के दौरान (19 जनवरी, 2012 तक) 3.80 करोड़ परिवारों को रोज़गार उपलब्ध कराये गये। कुल मिलाकर 122.37 करोड़ श्रम दिवस रोज़गार का सृजन सन्दर्भित वर्ष में इस योजना के तहत किया गया जिनमें से 60.45 करोड़ (49.40 प्रतिशत) महिला, 27.27 करोड़ (22.62 प्रतिशत) अनुसूचित जाति तथा 20.97 करोड़ (17.13 प्रतिशत) अनुसूचित जनजाति के लिए थे। ग्रामीण विकास मंत्री ने यह जानकारी देते हुए 16 अगस्त, 2011 को राज्य सभा में बताया कि महात्मा गॉंधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारण्टी योजना को और ज्यादा प्रभावी बनाने और राज्यों में कार्य निष्पादन को बेहतर बनाने के लिए सरकार ने कई कोशिशें की हैं। इन कदमों में प्रबन्धन और प्रशासनिक मदद संरचना को सुदृढ़ बनाना, प्रशासनिक व्यय की सीमा में दो प्रतिशत की वृद्धि करना, राज्य रोज़गार गारण्टी कोष बनाने पर जोर देना आदि शामिल है। वर्ष 2012-13 के बजट में 33 हजार करोड़ रुपये का आवंटन इस योजना के लिए किया गया है।12
उ0 प्र0 में वित्तीय वर्ष 2012-13 के दौरान कुल जाब-कार्ड धारकों की संख्या 14803579 है, जिसमें 4670268 अनुसूचित जाति, 158936 अनुसूचित जनजाति तथा 9974375 अन्य जातियां हैं। राज्य में 4800993 ऐसे परिवार हैं जो रोज़गार की मांग कर चुके हैं तथा 4781259 परिवारों को रोज़गार उपलब्ध कराया जा चुका है। राज्य में मनरेगा के अन्तर्गत कार्य कर रहे परिवारों की संख्या 1405770 है तथा राज्य में 100 दिन का रोज़गार पूर्ण कर चुके परिवारों की कुल संख्या 27911 है।13
बस्ती जनपद में वित्तीय वर्ष 2012-13 के दौरान कुल जाब-कार्ड धारकों की संख्या 265964 है, जिसमें 77067 अनुसूचित जाति, 157 अनुसूचित जनजाति तथा 188740 अन्य जातियां हैं। जनपद में 97283 ऐसे परिवार हैं जो रोज़गार की मांग कर चुके हैं तथा 96852 ऐसे परिवार हैं जिनको रोज़गार उपलब्ध कराया जा चुका है। जनपद में मनरेगा के अन्तर्गत कार्य कर रहे परिवारों की संख्या 32072 है तथा जनपद में 100 दिन का रोज़गार पूर्ण कर चुके परिवारों की कुल संख्या 991 है।14 जिला विकास योजना वर्ष 2013-14 की बैठक में सी.डी.ओ. आई. पी. पाण्डेय ने मनरेगा के लिए 13 करोड़ 2 लाख 25 हजार रुपये का प्रस्तावित बजट अनुमोदित किया है।15
अन्त में, हम इस निष्कर्ष पर पहुचते हैं कि देश की केन्द्र तथा राज्य सरकारें ग़रीबी उन्मूलन और ग्रामीण विकास के प्रति संवेदनशील हैं। परिणामस्वरूप देश में ग्रामीण क्षेत्रों का निरन्तर विकास एवं ग़रीबी उन्मूलन हो रहा है, लेकिन जितना होना चाहिए उतना नहीं। इसके लिए सरकार और जनता दोनों को आपसी सहयोग से कार्य करते हुए ग़रीबी उन्मूलन एवं ग्रामीण विकास कार्यक्रमों को सफल बनाना चाहिए।
सन्दर्भः-
1. प्रतियोगिता दर्पण/भारतीय अर्थव्यवस्था-2012, आगरा, पृष्ठ-24.
2. अरिहन्त, समसामयिकी महासागर, फरवरी-2013, पृष्ठ-30.
3. प्रतियोगिता दर्पण/भारतीय अर्थव्यवस्था-2012, आगरा, पृष्ठ-210.
4. वही, पृष्ठ-78.
5. दैनिक जागरण, लखनऊ, 7 जनवरी, 2011, पृष्ठ-18 एवं प्रतियोगिता दर्पण/भारतीय अर्थव्यवस्था-2012, आगरा, पृष्ठ-78.
6. प्रतियोगिता दर्पण/भारतीय अर्थव्यवस्था-2012, आगरा, पृष्ठ-79.
7. वही, पृष्ठ-80.
8. कुरुक्षेत्र, दिसम्बर-2009, पृष्ठ-2.
9. भारत-2010, सूचना और प्रसारण मंत्रालय भारत सरकार, पृष्ठ-894.
10. प्रतियोगिता दर्पण, अगस्त-2010, पृष्ठ-94.
11. अरिहन्त, समसामयिकी महासागर, फरवरी-2013, पृष्ठ-110.
12. प्रतियोगिता दर्पण/भारतीय अर्थव्यवस्था-2012, आगरा, पृष्ठ-176.
13. www.nregalndc.nic.in
14. वही.
15. अमर उजाला, गोरखपुर, 21 जून, 2013, पृष्ठ-3.

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मनरेगा एवं पर्यावरण सुरक्षा

ग्रामीण भारत के विकास के लिए केन्द्रीय सरकार द्वारा समय-समय पर कई विकास तथा रोज़गारपरक योजनाएं चलाई गयीं; जिनका मूल उद्देश्य आर्थिक विकास के साथ-साथ सामाजिक न्याय सुनिश्चित करना था। ‘‘महात्मा गॉंधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारण्टी अधिनियम’’ नामक कार्यक्रम भी इसी क्रम में एक प्रयास है। इस कार्यक्रम द्वारा पहली बार रोज़गार गारण्टी को कानूनी रूप दिया गया।1 इसकी अधिसूचना 7 सितम्बर, 2005 को जारी की गयी। इस कानून का लक्ष्य हर वित्तीय वर्ष में ग्रामीण इलाके के प्रत्येक परिवार के ऐसे वयस्क व्यक्ति को कम से कम सौ दिन का रोज़गार सृजन वाला ग़ैर-हुनर काम मुहैया कराना है जो सूखा, वनों की कटाई तथा भू-क्षरण के कारण लगातार पैदा होने वाली ग़रीबी की समस्या के निवारण में मददगार साबित हो ताकि लगातार रोजग़ार सृजन की प्रक्रिया जारी रहे।2
2 फरवरी, 2006 को लागू इस कानून के प्रथम चरण में यह सुविधा 200 ज़िलों में उपलब्ध करायी गयी थी। सन् 2007-08 में इस कानून का विस्तार 330 अतिरिक्त ज़िलों में किया गया जबकि बाकी ज़िलों को इसमें शामिल करने की अधिसूचना 1 अप्रैल, 2008 को जारी की गयी।3 2 अक्टूबर, 2009 को इसका नाम परिवर्तित करके नरेगा (राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारण्टी अधिनियम) के स्थान पर मनरेगा (महात्मा गॉंधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारण्टी अधिनियम) कर दिया गया।4
पिछले पॉंच सालों से महात्मा गॉंधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारण्टी अधिनियम हमारे विस्तृत ग्रामीण इलाकों में ग़रीबी उपषमन का प्रमुख कार्यक्रम रहा है। जब से यह अधिनियम लागू हुआ है देश के निर्धनतम ज़िलों में लाखों लोगों के जीवन पर इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ा है। निर्धारित न्यूनतम वेतन पर 100 दिनों के रोज़गार की गारण्टी देने वाला (11 सितम्बर, 2012 से सूखा प्रभावित राज्यों में 150 दिन का रोज़गार5) यह कानून पहला ऐसा कानून है जो दरिद्र ग्रामीण परिवारों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने हेतु सरकार को विवश करता है।6
इस शोध-लेख में अध्ययनकर्ता द्वारा उ0 प्र0 तथा बस्ती जनपद में मनरेगा के तहत रोज़गार की स्थिति तथा पर्यावरण सुरक्षा का अध्ययन किया गया है। आंकड़े मुख्यतः पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग, जिला पंचायत, उ0 प्र0 के आर्थिक सर्वेक्षण, पत्रिकाओं तथा मनरेगा की वेबसाइट www.nrega.nic.in द्वारा एकत्रित किये गये हैं।
ग्रामीण क्षेत्रों में रोज़गार उपलब्ध कराने की केन्द्र सरकार की महत्त्वाकांक्षी ‘मनरेगा’ योजना के तहत वर्ष 2012-13 के दौरान (6 मार्च, 2013 तक) 4.53 करोड़ परिवारों को रोज़गार उपलब्ध कराये गये। कुल मिलाकर 166.57 करोड़ श्रम दिवस रोज़गार का सृजन सन्दर्भित वर्ष में इस योजना के तहत किया गया जिनमें से 88.03 करोड़ (52.85 प्रतिशत) महिला, 36.64 करोड़ (22 प्रतिशत) अनुसूचित जाति, 27.3 करोड़ (16.39 प्रतिशत) अनु. जनजाति तथा 102.63 करोड़ (61.61 प्रतिशत) अन्य लोगों के लिए थे।7 वर्ष 2012-13 के बजट में 33 हजार करोड़ रुपये का आवंटन इस योजना के लिए किया गया है।8
उ0 प्र0 में ‘मनरेगा’ योजना के तहत वर्ष 2012-13 के दौरान (6 मार्च, 2013 तक) 48.17493 लाख परिवारों को रोज़गार उपलब्ध कराया गया। कुल मिलाकर 1096 लाख श्रम दिवस रोज़गार का सृजन सन्दर्भित वर्ष में किया गया; जिनमें से 209.37 लाख (19.1 प्रतिशत) महिला, 368.82 लाख (33.65 प्रतिशत) अनुसूचित जाति, 11.59 लाख (1.06 प्रतिशत) अनुसूचित जनजाति तथा 715.6 लाख (65.29 प्रतिशत) अन्य लोगों के लिए थे। राज्य में वित्तीय वर्ष 2012-13 के दौरान कुल जाब-कार्ड धारक परिवारों  की संख्या (6 मार्च, 2013 तक जारी) 14830914 है, जिसमें 4676677 अनुसूचित जाति, 159061 अनुसूचित जनजाति तथा 9995176 अन्य जातियां हैं। राज्य में 4984158 ऐसे परिवार हैं जो रोज़गार की मांग कर चुके हैं। राज्य में मनरेगा के अन्तर्गत कार्य कर रहे परिवारों की संख्या 1351789 है, 100 दिन का रोज़गार पूर्ण कर चुके परिवारों की कुल संख्या 36182 तथा राज्य में विकलांग लाभार्थी व्यक्तियों की संख्या 11530 है।9
बस्ती जनपद में ‘मनरेगा’ योजना के तहत वर्ष 2012-13 के दौरान (6 मार्च, 2013 तक) 0.97844 लाख परिवारों को रोज़गार उपलब्ध कराया गया। कुल मिलाकर 24.76 लाख श्रम दिवस रोज़गार का सृजन सन्दर्भित वर्ष में किया गया; जिनमें से 6.17 लाख (24.9 प्रतिशत) महिला, 7.79 लाख (31.46 प्रतिशत) अनुसूचित जाति, 0.02 लाख (0.07 प्रतिशत) अनुसूचित जनजाति तथा 16.96 लाख (68.47 प्रतिशत) अन्य लोगों के लिए थे। जनपद में वित्तीय वर्ष 2012-13 के दौरान कुल जाब-कार्ड धारक परिवारों  की संख्या (6 मार्च, 2013 तक जारी) 266591 है, जिसमें 77156 अनुसूचित जाति, 157 अनुसूचित जनजाति तथा 189278 अन्य जातियां हैं। जनपद में 101918 ऐसे परिवार हैं जो रोज़गार की मांग कर चुके हैं। जनपद में मनरेगा के अन्तर्गत कार्य कर रहे परिवारों की संख्या 30574 है, 100 दिन का रोज़गार पूर्ण कर चुके परिवारों की कुल संख्या 814 तथा राज्य में विकलांग लाभार्थी व्यक्तियों की संख्या 187 है।10
मनरेगा का उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में मूलभूत रोज़गार गारंटी सुनिश्चित करना है। इस अधिनियम में इस लक्ष्य की पूर्ति हेतु आवश्यक परियोजनाएं चलायी गयी हैं। ये परियोजनाएं ग्रामीण विकास, रोज़गार सृजन के साथ-साथ पर्यावरण संतुलन बनाये रखने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। मनरेगा को पर्यावरण से जोड़ने पर बल दिया जा रहा है।11 अधिनियम की अनुसूची के अनुसार मनरेगा के अन्तर्गत किये जाने वाले कार्य निम्नलिखित हैं-12
१  जल संरक्षण तथा जल संचय।
२  सूखे से बचाव के लिए वृक्षारोपण और वन संरक्षण।
३  सिंचाई के सूक्ष्म एवं लघु परियोजनाओं सहित नहरों का निर्माण।
४  अनु.जाति/अनु.जनजाति परिवारों या भूमि सुधारों के लाभान्वितों को जमीन तक सिंचाई की सुविधा पहुंचाना।
५  परम्परागत जलस्रोतों के नवीकरण हेतु जलाशयों से गाद की निकासी।
६  भूमि विकास।
७  बाढ़ नियन्त्रण एवं सुरक्षा परियोजनाएं, जिनमें जलभराव से ग्रस्त इलाकों से जल निकासी।
८  सहज आवाजाही हेतु गांवों में सड़कों का व्यापक जाल बिछाना, सड़क निर्माण परियोजनाओं में  आवश्यकतानुसार पुलिया का निर्माण कराना एवं गांवों के भीतर सड़कों के साथ-साथ नालियां भी बनवाना।
९  राज्य सरकार के साथ परामर्श पर केन्द्र सरकार द्वारा अधिसूचित कोई भी अन्य कार्य।
जल संसाधन पर्यावरण तथा पारिस्थितिकी तन्त्र को प्रभावित करने वाला महत्त्वपूर्ण कारक है। जलवायु, मृदा, कृषि, वनस्पति तथा जीव-जन्तु सभी इससे प्रभावित होते हैं। अतः जल संसाधन का संरक्षण अपरिहार्य है। मनरेगा के अन्तर्गत जल-संरक्षण परियोजना को शामिल किया जाता है। इसके साथ वर्षा-काल में बिना प्रयोग व्यर्थ में बह जाने वाले आवश्यक जल के संचय पर भी जोर दिया जाता है। इसके लिए बांधों, तालाबों, नहरों आदि का निर्माण कराया जा रहा है; जिससे जल संचय होगा तथा जल की कमी द्वारा पर्यावरण को होने वाली क्षति को रोकने में भी मदद मिलेगी और पर्यावरण की सुरक्षा होगी।13
मनरेगा के अन्तर्गत जल संरक्षण के साथ-साथ परम्परागत जल स्रोतों के पुनर्नवीकरण हेतु जलाशयों से गाद की निकासी पर भी जोर दिया जाता है। इस कार्य में न केवल ग्रामीण क्षेत्र के लोगों को रोज़गार मिल रहा है बल्कि जल संरक्षण के द्वारा ग्रामीण लोगों को साफ और स्वच्छ पेयजल भी उपलब्ध हो रहा है।14
मनरेगा के अन्तर्गत बाढ़ नियन्त्रण और जल भराव से ग्रस्त इलाकों से पानी निकासी की व्यवस्था पर भी जोर दिया जाता है। जल भराव के कारण भूमि में लवणों का संकेद्रण बढ़ जाता है, भूमि क्षारीय हो जाती है और भूमि की उत्पादकता कम हो जाती है। जल भराव का मुख्य कारण बड़ी सिंचाई परियोजनाओं से किसानों द्वारा अति सिंचाई करना, नालियों का अभाव आदि है। मनरेगा द्वारा सूक्ष्म तथा लघु सिंचाई परियोजनाओं पर जोर तथा गांवों में सड़कों के किनारे नाली का निर्माण कराया जाता है। इन कार्यों से पर्यावरण सुरक्षा के साथ कृषि उत्पादन में वृद्धि होगी।15
मनरेगा द्वारा भूमि विकास पर बल, भूमि की उर्वरता कायम रखते हुए कृषि कार्य किया जाता है। इस हेतु रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के स्थान पर जैविक उर्वरकों एवं औषधियों का प्रयोग किया जाता है। इन सभी कार्यों से भूमि सुधार, पर्यावरण सन्तुलन, प्रदूषण से बचाव तथा स्वस्थ पर्यावरण का निर्माण हो रहा है।16
इस योजना के अन्तर्गत सूखे से बचाव के लिए वृक्षारोपण तथा वनसंरक्षण परियोजना को शामिल किया गया है। वन वर्षा, आद्रता, तापमान में कमी, भूमि कटाव, भूक्षरण, भूमि उर्वरता तथा भूमिगत जलस्तर के लिए उत्तरदायी होते हैं। वन हवाओं की गति में अवरोधक एवं कार्बन-डाई-ऑक्साइड अवशोषित कर पर्यावरण को शुद्ध करते हैं। एक वृक्ष अपने सम्पूर्ण जीवनकाल में 12 टन कार्बन-डाई-ऑक्साइड अवशोषित कर 0.04 टन ऑक्सीजन पर्यावरण को देता है। वनों के कटाव से पर्यावरण सम्बन्धित अनेक समस्याएं जैसे- जैव विविधता को खतरा, कई प्रजातियों की विलुप्तता तथा जलवायु परिवर्तन आदि उत्पन्न हो गयी हैं। वनों के संरक्षण एवं वृक्षारोपण से सूखा, मरुस्थलीकरण, बाढ़ की समस्या तथा पारिस्थितिकी तंत्र में असन्तुलन आदि समस्याओं से निजात मिलेगा और पर्यावरण सन्तुलित होगा।17
अन्त में, हम इस निष्कर्ष पर पहुचते हैं कि महात्मा गॉंधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारण्टी अधिनियम (मनरेगा) रोज़गार के अधिकार को साकार करने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है। इस कानून के माध्यम से ग्रामीण क्षेत्रों में आर्थिक एवं सामाजिक बुनियादी ढांचा विकसित किया गया है जिससे लोगों को रोज़गार के नियमित अवसर उपलब्ध हो रहे हैं। इसके अन्तर्गत मुख्य रूप से सूखा, वनों के विनाश तथा भूमि कटाव जैसी उन तमाम समस्याओं को भी सम्मिलित किया गया है जिसके कारण व्यापक पैमाने पर ग़रीबी फैल रही है। इस अधिनियम के उचित क्रियान्वयन से रोज़गार द्वारा ग़रीबी के भौगोलिक नक्शे में परिवर्तन तथा पर्यावरण की सुरक्षा को मजबूत किया जा सकता है।


सन्दर्भः-
1. कुरुक्षेत्र, फरवरी-2013, पृष्ठ-13.
2. कुरुक्षेत्र, दिसम्बर-2009, पृष्ठ-2 एवं योजना, अगस्त-2008, पृष्ठ 17.
3. भारत-2010, सूचना और प्रसारण मंत्रालय भारत सरकार, पृष्ठ-894.
4. प्रतियोगिता दर्पण, अगस्त-2010, पृष्ठ-94.
5. अरिहन्त, समसामयिकी महासागर, फरवरी-2013, पृष्ठ-110.
6. कुरुक्षेत्र, अक्टूबर-2009, पृष्ठ-33.
8. प्रतियोगिता दर्पण/भारतीय अर्थव्यवस्था-2012, आगरा, पृष्ठ-176.
11. www.jagran.com/bihar/shiekhpura-9468228.html
12. कुरुक्षेत्र, दिसम्बर-2009, पृष्ठ-27.
13. वही, पृष्ठ-27.
14. वही.
15. वही, पृष्ठ-28.
16. वही.
17. वही.


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